राष्ट्रपति को विधेयकों पर फैसला लेने के लिए समयसीमा में बांधने पर SC देगा राय, जानें क्या है पूरा मामला
Supreme Court: अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने राज्यपाल या राष्ट्रपति के फैसला लेने की समयसीमा तय कर दी थी. कोर्ट ने कहा था कि अगर तय समय में वह फैसला न लें तो राज्य सरकार कोर्ट आ सकती है.

राष्ट्रपति और राज्यपाल को विधेयकों पर फैसला लेने के लिए समयसीमा में बांधने के मसले पर सुप्रीम कोर्ट गुरुवार (20 नवंबर, 2025) को अपनी राय देगा. राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की तरफ से भेजे गए प्रेसिडेंशियल रेफरेंस पर यह सुनवाई शुरू हुई थी. 10 दिन चली सुनवाई 11 सितंबर, 2025 को पूरी हुई थी. सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों की बेंच को यह तय करना है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल अगर विधेयकों पर जल्द फैसला न लें, तो क्या उसमें कोर्ट दखल दे सकता है?
क्या है मामला?
इस साल अप्रैल महीने में सुप्रीम कोर्ट के 2 जजों की बेंच ने राज्यपाल और राष्ट्रपति के पास लंबित तमिलनाडु सरकार के 10 विधेयकों को अपनी तरफ से मंजूरी दे दी थी. कोर्ट ने राज्यपाल या राष्ट्रपति के फैसला लेने की समयसीमा भी तय कर दी थी. कोर्ट ने कहा था कि अगर तय समय में वह फैसला न लें तो राज्य सरकार कोर्ट आ सकती है.
सुप्रीम कोर्ट की बेंच में कौन-कौन शामिल?
सुप्रीम कोर्ट के इसी फैसले को लेकर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने प्रेसिडेंशियल रेफरेंस भेजा. संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत भेजे गए इस रेफरेंस में राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल किए. उन पर सुनवाई के लिए चीफ जस्टिस बीआर गवई ने अपनी अध्यक्षता में 5 जजों की बेंच गठित की. बेंच के बाकी सदस्य जस्टिस सूर्य कांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी. एस. नरसिम्हा और जस्टिस ए. एस. चंदुरकर हैं.
राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से किए 14 सवाल
प्रेसिडेंशियल रेफरेंस में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से यह 14 सवाल किए हैं :
- जब संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल को कोई विधेयक भेजा जाता है, तो उनके सामने क्या संवैधानिक विकल्प होते हैं?
- क्या राज्यपाल भारत के अपने विकल्पों का इस्तेमाल करते समय मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से बंधे हैं?
- क्या राज्यपाल की तरफ से अनुच्छेद 200 के उठाए गए कदमों पर कोर्ट में सुनवाई हो सकती है?
- राज्यपाल को अदालती कार्रवाई से मुक्त रखने वाला अनुच्छेद 361 क्या अनुच्छेद 200 के तहत उनकी तरफ से लिए फैसले की न्यायिक समीक्षा पर प्रतिबंध लगाता है?
- जब संविधान में समयसीमा नहीं दी गई है, तब क्या न्यायिक आदेश के जरिए राज्यपाल की शक्तियों के प्रयोग की समयसीमा तय की जा सकती है? क्या उन शक्तियों के प्रयोग के तरीके को भी निर्धारित किया जा सकता है?
- संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति अपने विवेक का इस्तेमाल कर फैसला लेते हैं? क्या उनकी इस शक्ति पर कोर्ट में सुनवाई हो सकती है?
- जब संविधान में अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति के फैसले की कोई समयसीमा तय नहीं की गई है, तब क्या न्यायिक आदेश के जरिए ऐसा किया जा सकता है?
- क्या अनुच्छेद 201 के तहत फैसला लेने के लिए राष्ट्रपति को अनुच्छेद 143 के तहत रेफरेंस भेज कर सुप्रीम कोर्ट की सलाह लेने की जरूरत है?
- अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति को विधेयकों पर निर्णय लेना होता है. तब वह कानून का रूप लेते हैं. किसी विधेयक के कानून बनने से पहले कोर्ट का उस पर विचार करना क्या संवैधानिक दृष्टि से उचित है?
- सुप्रीम कोर्ट को न्याय के लिए विशेष शक्ति देने वाले अनुच्छेद 142 का प्रयोग क्या राष्ट्रपति और राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में आने वाले मामलों के लिए भी किया जा सकता है?
- क्या विधानसभा की तरफ से पास विधेयक संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की सहमति के बिना कानून बन सकता है?
- जब मसला संवैधानिक लिहाज से अहम हो, तब क्या सुप्रीम कोर्ट की किसी बेंच को अनुच्छेद 145(3) के तहत उसे कम से कम 5 जजों की बेंच को नहीं भेज देना चाहिए?
- क्या अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल सुप्रीम कोर्ट किसी कानून या संवैधानिक प्रावधान के विपरीत जाकर कर सकता है?
- अनुच्छेद 131 में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच विवादों को हल के लिए सुप्रीम कोर्ट के दखल का प्रावधान है. क्या यह अनुच्छेद बाकी मामलो में सुप्रीम कोर्ट को दखल से रोकता है?
केंद्र सरकार ने कोर्ट में क्या दी दलील
सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार और एनडीए शासित कई राज्यों ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 में राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए समयसीमा तय नहीं की है. कोर्ट अपनी तरफ से नई बात नहीं जोड़ सकता है. ऐसा करना संविधान संशोधन माना जाएगा जो कि संसद के अधिकार क्षेत्र में आता है. उन्होंने यह भी कहा कि राज्यपाल संविधान के पालन की शपथ से बंधे होते हैं. उनकी भूमिका को राज्य सरकार के हर फैसले पर हस्ताक्षर करने तक सीमित नहीं किया जा सकता. संविधान निर्माताओं ने राज्यपाल को विधेयकों को रोकने की शक्ति सोच-विचार कर दी थी. इसके अलावा, केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 361 का भी हवाला दिया. इस अनुच्छेद के तहत राज्यपाल को किसी भी अदालती कार्यवाही में पक्षकार नहीं बनाया जा सकता है.
केंद्र ने यह दलील भी दी कि केंद्र और राज्यों के बीच का विवाद संविधान के अनुच्छेद 131 के तहत सुप्रीम कोर्ट में मूल विवाद की तरह दाखिल होना चाहिए. अनुच्छेद 32 आम नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए है. अनुच्छेद 32 की याचिका राज्य सरकार दाखिल नहीं कर सकती है.
मामले पर विपक्ष ने क्या दी दलील
पंजाब, केरल और कर्नाटक समेत कई राज्यों ने केंद्र सरकार के रुख का विरोध किया. उन्होंने कहा कि राज्यपाल को अनिश्चितकाल तक विधेयकों को रोके रखने का अधिकार नहीं मिल सकता. अगर इसकी अनुमति दी गई तो यह चुनी हुई सरकार को राज्यपाल की मर्जी पर निर्भर कर देगा.
इन राज्यों ने दलील दी कि राज्यपाल मंत्रिमंडल की सहायता और परामर्श से ही काम कर सकते हैं. वह विधानसभा से पारित विधेयकों को अनिश्चित समय तक रोके नहीं रह सकते हैं. किसी विधेयक को वह सरकार को दोबारा विचार के लिए भेज सकते हैं, लेकिन अगर विधानसभा विधेयक को पुराने स्वरूप में वापस पास करती है, तो राज्यपाल के पास उसे मंजूरी देने के अलावा कोई विकल्प नहीं.
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Source: IOCL






















