अपराधियों के चुनाव लड़ने या किसी राजनीतिक पार्टी के पदाधिकारी बनने की मांग पर सुप्रीम कोर्ट विस्तृत सुनवाई करेगा. कोर्ट ने केंद्र सरकार और चुनाव आयोग से जवाब दाखिल करने को कहा है. कोर्ट ने यह भी कहा है कि राज्य सरकारें भी चाहें तो जवाब दाखिल कर सकती हैं. 4 मार्च को मामले पर अगली सुनवाई होगी.
2016 में एडवोकेट और बीजेपी नेता अश्विनी उपाध्याय ने यह याचिका दाखिल की थी. इसमें सांसदों/विधायकों के खिलाफ आपराधिक केस के तेज निपटारे की मांग की गई थी. इसी को सुनते हुए सुप्रीम कोर्ट ने देश भर में विशेष एमपी/एमएलए कोर्ट बनाने का आदेश दिया था, लेकिन इस याचिका में रखी गई दूसरी मांगों पर सुनवाई अभी लंबित है.
इस याचिका में जनप्रतिनिधित्व कानून को धारा 8 को भी चुनौती दी गई है. इस धारा में प्रावधान है कि 2 साल या उससे अधिक की सजा पाने वाला व्यक्ति सजा पूरी होने के 6 साल बाद चुनाव लड़ सकता है. याचिकाकर्ता का कहना है कि जिस तरह कोर्ट से दोषी ठहराए गए व्यक्ति को सरकारी नौकरी नहीं मिलती. उसी तरह सजायाफ्ता नेताओं को दोबारा चुनाव लड़ने और सांसद/विधायक बनने की छूट नहीं मिलनी चाहिए.
याचिका में यह भी कहा गया है कि अपराधियों के राजनीतिक पार्टी बनाने या किसी पार्टी के पदाधिकारी बनने पर भी रोक होनी चाहिए. सोमवार (10 फरवरी, 2025) को इस मामले को सुनते हुए जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस मनमोहन की बेंच ने राजनीति में अपराधियों के दखल को कम करने की जरूरत बताई. जजों ने कहा कि पहले दिए गए फैसलों से कुछ बदलाव हुए हैं, लेकिन अभी भी बहुत सुधार की गुंजाइश है. कोर्ट ने कहा कि सरकार और चुनाव आयोग को अपनी तरफ से भी प्रयास करने चाहिए.
सुनवाई के दौरान जस्टिस मनमोहन ने याचिकाकर्ता से कहा, 'आपकी याचिका में जो मांग रखी गई है, उसे एक लोकतांत्रिक देश के रूप में हमें एक लक्ष्य की तरह हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए, लेकिन आधी-अधूरी कोशिश से अच्छे परिणाम नहीं निकलेंगे. अगर अपराधी को पार्टी पदाधिकारी बनने से रोक दिया जाएगा, तो वह अपनी पत्नी या किसी और को इस पद पर बैठा कर रिमोट कंट्रोल से पार्टी चलाएगा. हमें सभी पहलुओं पर विचार कर कोई आदेश देना चाहिए.
इस मामले को सुनते हुए सुप्रीम कोर्ट ने वरिष्ठ वकील विजय हंसारिया को एमिकस क्यूरी नियुक्त किया था. उन्होंने पिछले साल कोर्ट को सलाह दी थी कि सजायाफ्ता नेताओं को जीवन भर चुनाव नहीं लड़ने देना चाहिए. सजा पाने वाले को इस बात की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए कि वह संसद या विधानसभा में बैठ कर दूसरों के लिए कानून बनाए. एमिकस ने कहा था कि आपराधिक मामले में सजा पाने वाला व्यक्ति सरकारी नौकरी के अयोग्य माना जाता है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग या केंद्रीय सतर्कता आयोग जैसी संस्थाओं में भी सजायाफ्ता व्यक्ति को किसी पद के लिए अयोग्य माना गया है. ऐसे में नेताओं को विशेष छूट देने का कोई औचित्य नहीं है.