नई दिल्ली: दिल्ली के जंतर मंतर पर जिग्नेश ने समर्थकों सहित एक रैली की जिसमें चंद्रशेखर उर्फ रावण को रिहा करने की मांग उठाई गई. भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर 8 जून से जेल में है. महाराष्ट्र में हुई हिंसा के बाद रावण की रिहाई के लिए रैली का मकसद साफतौर पर दलित वोट को लामबंद करना है.


देश में दलितों की आबादी 21 फीसदी है. 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी कभी इतना बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाती अगर उसे दलित वोट ना मिला होता. इस चुनाव में बहुजन समाज पार्टी का खाता तक नहीं खुल पाया था. इसके बाद यूपी विधानसभा के चुनावों में भी बसपा का प्रदर्शन बेहतर नहीं रहा.


सवाल ये है कि क्या दलितों के दिलों पर राज करने वालीं मायावती के किले में जिग्नेश और चंद्रशेखर जैसे नए दलित नेताओं ने सेंध लगा ली है? सवाल ये भी है कि आने वाले वक्त में मायावती और उनकी पार्टी अपना खोया रुतबा वापस पा सकेंगी?


दलित राजनीति के नए चेहरे - जिग्नेश और चंद्रशेखर
जिग्नेश मेवानी और चंद्रशेखर रावण को दलित राजनीति का नया चेहरा बताया जा रहा है. इस 21 फीसदी वोट पर कांग्रेस की भी नजर है. दलित-मुस्लिम-पिछड़े गठजोड़ के बल पर कांग्रेस को केंद्र का सिंहासन हासिल करने की उम्मीद तो है लेकिन क्या ऐसा हो पाएगा? इस सवाल का जवाब तो 2019 में ही मिल पाएगा. फिलहाल ये साफ दिखाई दे रहा है कि कांशीराम ने दलितों के दम पर जो पार्टी खड़ी की थी उसकी सुप्रीमो मायावती इन दिनों नरम पड़ती दिख रही हैं.



मायावती की चुप्पी के मायने क्या?
मायावती ने ऊना, सहारनपुर और महाराष्ट्र में हुई जातीय हिंसा पर बयान दिए, लेकिन ये बयान उस तरह के नहीं थे जिस तरह के बयानों के लिए मायावती जानी जाती हैं. 1980 में माया का जैसा तेवर था वैसा अब नहीं दिखता. आखिर उनके रुख में आई इस नरमी के पीछे क्या कारण हो सकते हैं? बसपा किसी वक्त गठबंधन के पहियों पर सवार होकर आगे बढ़ती थी लेकिन कांशीराम और मायावती का जादू ऐसा चला कि 2007 में तो यूपी विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 206 सीटें जीतीं. राजनीति के जानकार बताते हैं कि मायावती के तेवर आगे भी बहुत तल्ख शायद ही हों.



बहुजन से सर्वजन की ओर
मायावती ने वक्त के साथ साथ पहचान बदली और पार्टी को बहुजन से सर्वजन की ओर ले गईं. एक ऐसा वक्त भी आया जब 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है' जैसे नारे सुने गए. मायावती ने बड़े पैमाने पर मुस्लिमों और ब्राह्मणों को टिकट दिए. कभी जिन जातियों के खिलाफ माया बिगुल फूंकती थीं, उनके सम्मेलनों में दिखाई देने लगीं. बहुजन समाज पार्टी के सामने दो रास्ते थे- या तो वो केवल दलित वोटों पर फोकस करती या फिर सभी जातियों के वोटों को बटोरने की कोशिश करती. बसपा ने दूसरा रास्ता चुना.



ऊना, सहारनपुर और कोरेगांव
मायावती, ऊना और सहारनपुर भी गई थीं. संभव है कि आने वाले दिनों में वे कोरेगांव भी जाएं. उन्होंने जुलाई में सहारनपुर मुद्दे पर राज्यसभा से भी इस्तीफा दे दिया. दलित राजनीति, मायावती के जीवन भर की पूंजी है. अब जिग्नेश और चंद्रशेखर जैसे नए दलित नेता मायावती के इस साम्राज्य में सेंध लगाने की कोशिश कर रहे हैं. ये दोनों ही युवा हैं, खुल कर दलित मुद्दों पर वैसे ही उग्रता के साथ बोलते हैं जैसा शायद 1980 के दशक में माया खुद बोलती थीं. माया नहीं चाहेंगी कि ये दोनों दलितों को प्रभावित करें.


अब क्या करेंगी मायावती
देश का जातीय ताना-बाना इन दिनों जैसा रूप ले रहा है, ऐसे में अब मायावती अपने कोर वोट बैंक को बरकरार रखने के लिए क्या करेंगी? यूपी चुनाव परिणाम ने बसपा मुखिया को स्पष्ट संकेत दिया कि उनका कोर वोटबैंक 'दलित' अब दरक चुका है. मायावती ने राज्यसभा से इस्तीफा देते हुए दलित कोर वोट बैंक को सहेजने की कोशिश भी की. चंद्रशेखर और जिग्नेश ने मायावती के सामने नई चुनौतियां खड़ी कर दी हैं. अब ऐसे में देखना ये होगा कि मायावती कैसे सर्वजन के साथ अपने कोर वोटबैंक 'बहुजन' को बरकरार रख पाती हैं.