तेलंगाना के जुबली हिल्स की गलियों में उपचुनाव को लेकर इन दिनों एक अजीब ही नजारा देखने को मिल रहा है. यह सिर्फ एक चुनाव नहीं है, बल्कि नेताओं की ओर से किया जा रहा एक नाटक है, जिसका मंचन कुछ दिनों के लिए होता है और फिर पर्दा गिर जाता है. यह देखकर किसी को दुख हो सकता है, किसी को गुस्सा आ सकता है, लेकिन सच कहें तो यह इंटरेस्टिंग है कि सियासत नेताओं से क्या-क्या करवाती है.

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वोट बटोरने की इस होड़ में नेता अपने असली काम यानी जन-कल्याण और विकास को छोड़कर ऐसे काम कर रहे हैं जो उनके पद और प्रतिष्ठा से बिल्कुल मेल नहीं खाती है. कोई नेता नाई की दुकान पर हजामत बना रहा है, तो कोई सड़क पर ऑटो-रिक्शा चलाकर खुद को आम आदमी साबित करने की कोशिश कर रहा है. कोई चाय की दुकान पर चाय बना रहा है, तो कोई किसी घर में दो मिनट के लिए झाड़ू लगा रहा है. विडंबना देखिए, ये वही नेता हैं, जो महीनों तक अपने क्षेत्र में नजर नहीं आते और चुनाव आते ही अचानक मजदूर बन जाते हैं.

यह सब सिर्फ और सिर्फ दिखावा है, ताकि वोटरों को लुभाया जा सके. नेता जानते हैं कि जनता की नब्ज कहां हैं और इसलिए वे गरीबी, सादगी और रोजमर्रा के संघर्ष से जुड़े काम करके भावनात्मक जुड़ाव बनाने की कोशिश करते हैं. जुबली हिल्स जैसे प्रतिष्ठित क्षेत्र में भी, जहां असल जरूरतें बुनियादी ढांचे और बेहतर शासन की हैं, नेता अपनी ऊर्जा ऐसे पॉपुलिस्ट स्टंट में लगा रहे हैं.

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दुनिया जानती है कि एक बार चुनाव खत्म हो जाए, तो ये नेता अपने सूट-बूट और एयर-कंडीशंड दफ्तरों में वापस लौट जाएंगे. जनता के बीच काम करने का यह जुनून बस कुछ दिनों का बुखार है. जिसके बाद ये उसी तरह गायब हो जाएंगे जैसे गधे के सिर से सींग गायब हो जाता है.

जनता भी सब समझती है कि यह सब चुनावी नौटंकी है, पर मजबूरन इस खेल का हिस्सा बनना पड़ता है. सवाल यह है कि क्या जनता इस बार इस दिखावे को नजरअंदाज करके वास्तविक काम करने वाले नेता को चुनेगी या फिर एक बार फिर इन ड्रामाबाज नेताओं के झांसे में आ जाएगी.

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