Kargil Vijay Diwas: “मुझे कोई पछतावा नहीं है, अगर मुझे एक और जिंदगी मिली, मैं सेना में शामिल हो जाऊंगा और फिर से भारत के लिए लड़ूंगा.” ये लाइनें कैप्टन विजयंत थापर की उस आखिरी चिट्ठी की हैं, जिसे उन्होंने करगिल युद्ध के दौरान अपने माता-पिता को लिखी थी. 22 साल से ये लाइनें उन युवाओं को प्रेरित कर रही हैं जो देश के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर कर देने को तैयार हैं. करगिल वॉर मेमोरियल पर सैकड़ों जवानों के बलिदान की शौर्य गाथाएं मौजूद हैं.


करगिल वॉर मेमोरियल उन योद्धाओं की यादें हैं, जिन्होंने अपनी जान से भी ऊपर अपने देश को रखा, जिनके लिए दुश्मन के कब्जे से अपनी जमीन को आजाद करना अपनी जान से भी ज्यादा जरूरी था. ये मेमोरियल देश को याद दिलाता है कि सरहदों को सुरक्षित रखने की कितनी बड़ी कीमत सेना को चुकानी पड़ती है. करिगल युद्ध को भले ही 22 साल बीत गए हों लेकिन जिन्होंने जंग लड़ी उनके लिए तो समय जैसे वहीं ठहरा हुआ है.


जनरल (रिटा) वीपी मलिक, तत्कालीन आर्मी चीफ बताते हैं, “जो यहां पर लड़ाई हुई उसका तो मैं पूरा श्रेय यहां की जो यूनिट्स हैं, फॉर्मेंशंस हैं, उनको देना चाहता हूं. उन्होंने कमाल की लड़ाई लड़ी. जो बाहर वाले लोग ये समझते थे कि असंभव है, उन्होंने उस असंभव काम को संभव बना दिया.”


करगिल की जंग दुनिया की कुछ सबसे मुश्किल जंगों में से एक थी. धोखे से दुश्मन ने कई भारतीय पोस्ट पर कब्ज़ा कर लिया था. अपनी पोस्ट को वापस पाने की चुनौती पहाड़ जैसी ही बड़ी थी. लेकिन भारत की सेना के फौलादी इरादों के आगे पहाड़ भी चूर-चूर हो गए.


ना सिर्फ सेना के लिए बल्कि आम लोगों के लिए भी करगिल युद्ध को भूलना नामुमकिन है. लेकिन 22 साल में बहुत कुछ बदला है. देश बदला है, नीतियां बदली हैं, सोच बदली है और जेनेरेशन बदली है. सवाल ये है कि क्या हमारे देश में आज की जेनेरेशन को करगिल की जंग और इसके योद्धाओं के बारे में पता है?


जिन लोगों ने देश के लिए बलिदान दे दिया, जिस जंग ने नए भारत की सोच को बदल दिया था, उसके बारे में युवाओं का न पता होना निराश करता है. युवाओं के लिए ये जानना बेहद जरूरी है कि करगिल जंग से ठीक पहले हमने पाकिस्तान की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया था. अमन की बस लेकर खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहार वाजपेयी पाकिस्तानी गए थे. लेकिन अपनी आदत से मजबूर पाकिस्तान ने पीठ पर वार किया. वार गहरा था.


हिंदुस्तान घायल तो हुआ लेकिन जब पलटवार हुआ तो पाकिस्तानी फौज को संभलने तक का मौका नहीं मिला. भारतीय सेना में कुछ ऐसे सूरमा थे जिनका लक्ष्य सिर्फ एक ही था कि दुश्मन को उसकी औकात दिखानी होगी. लेकिन क्या आज का युवा पाकिस्तान को नाको चने चबवाने वाले उन सूरमाओं को पहचानता है?


अनमोल नाम के युवा कहते हैं, “करगिल के बारे में इतना पता है कि भारत ने लाहौर तक युद्ध किया था. राजा हरीश चंद्र तब कश्मीर के राजा था. दो मैटर...शायद कंफ्यूज कर रहा हूं. शायद कश्मीर और बांग्लादेश में मिस कर रहा हूं.” वहीं मनोरमा बतीती हैं, “इतना पता है कि 1990 के आस-पास लड़ी गयी थी. भारत की कुछ छावनियों पर क़ब्ज़ा कर लिया था. भारत ने इसके ख़िलाफ़ लड़ायी की. बॉर्डर एरिया पाकिस्तान के पास लेकिन श्योर नही हूं. भारत जीता था नॉट श्योर.”


राहुल नाम के युवक का कहना है, “करगिल में इंडिया वर्सेज पाकिस्तान हुआ था. भारत जीता था लेकिन बाक़ी मुझे याद नहीं है. पाकिस्तान के पास एडवांटेज थी. भारत जीता था.” इसके अलावा भावेश यादव बताते हैं, “मुझे जो भी जानकारी है वो फ़िल्म के ज़रिए पता है. किताबों में पढ़ाया नहीं जाता. यह पता है कि 1999 में जंग लड़ी गयी थी. एयरफोर्स का भी महत्वपूर्ण रोल था. पाकिस्तान ने हमारे कुछ एरिया पर क़ब्ज़ा कर लिया था. भारत ने जीत हासिल की थी.”


करगिल की जीत सिर्फ जीत नहीं है. आने वाली कई पीढ़ियों के लिए भारतीय सेना के गौरवशाली इतिहास का एक और सुनहरा अध्याय है, जो हर भारतीय के सीने को गर्व से चौड़ा कर देता है. इसके लिए सैकड़ों जवानों को अपना सर्वोच्च बलिदान देना पड़ा. आज 22 साल बीतने के बाद भी सैकड़ों जवानों के परिवारवालों के लिए करिगल की जंग बेहद कष्टदायक है.


कैप्टन बत्रा सिर्फ 24 साल के थे. करगिल जंग के बीच में ही उन्हें लेफ्टिनेंट से कैप्टन बनाया गया, क्योंकि प्वाइंट 5140 पर कब्जा उनके अदम्य साहस और रणकौशल का प्रमाण था. कैप्टन बत्रा को प्वाइंट 4875 को दुश्मनों से आजाद कराने की जिम्मेदारी मिली थी. वे तो जैसे इस ऑर्डर के इंतज़ार में थे  क्योंकि पिछले मिशन में ही उन्होंने इशारा कर दिया था कि ‘ये दिल मांगे मोर.’


कैप्टन बत्रा जानते थे कि जिस मिशन के लिए वो जा रहे हैं, वहां से वापस लौटना करीब-करीब नामुमकिन था. 4 जुलाई को प्वाइंट 4875 को रीकैप्चर करने का ऑपरेशन लॉन्च हुआ. कैप्टन बत्रा भी इसमें शामिल थे. धीरे-धीरे सभी टीमें प्वाइंट 4875 पर तरफ बढ़ते रहे. दुश्मन की तरफ से लगातार फायरिंग हो रही थी. चुनौती बेहद मुश्किल थी. लेकिन ये लोग ऊपर चढ़ते रहे.


रात में जब कैप्टन बत्रा जब चोटी की तरफ चढ़ रहे थे तो बीच में उन्होंने एक पाकिस्तानी मशीन गन को स्पॉट किया, जिसके जरिए नीचे फंसे हुए भारतीय सैनिकों पर लगातार फायरिंग की जा रही थी. पत्थरों के पीछे छुपते हुए वह मशीन गन वाली जगह पर पहुंचे और ग्रेनेड फेंककर उसे नष्ट कर दिया. 


सुबह-सुबह कैप्टन बत्रा और उनकी टीम अपने लोकेशन पर पहुंची. करीब साढ़े पांच बजे उनके कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टिनेंट कर्नल वाईके जोशी ने उनसे इलाके की रेकी करने के लिए कहा. कैप्टन बत्रा ने दुश्मन के संगर का पता लगा लिया लेकिन जल्दी ही उन्हें पता लग गया कि वहां पर बाएं या दाएं से घूमकर नहीं जाया जा सकता है. उन्होंने सामने से हमला करने का फैसला किया. अपनी एके-47 राइफल से फायर करते हुए वो सीधे दुश्मन की पोस्ट की तरफ बढ़ गए. दुश्मन की फायरिंग में घायल थे लेकिन तब भी वो पोस्ट में घुस गए. करीबी लड़ाई में उन्होंने पांच पाकिस्तानी सैनिकों का खात्मा कर दिया.


कैप्टन विक्रम बत्रा के साथ जो लोग मौजूद थे, वो उनकी बहादुरी देखकर हैरान थे लेकिन मिशन पूरा नहीं हुआ था. वहां पर कई ऐसी पोस्ट थी जहां से पाकिस्तानी जवान मशीनगन से फायरिंग कर रहे थे. इन्हीं में से एक पोस्ट पर चार पाकिस्तानी सैनिकों को कैप्टन बत्रा ने ढेर कर दिया. इसी बीच उनके साथ मौजूद एक जवान को भी गोली लग गयी. कैप्टन बत्रा ने उसे गोलियों की बौछार के बीच बचाकर वापस लाने का फैसला किया.


कैप्टन बत्रा के साथ उस वक्त सूबेदार रघुनाथ सिंह थे. कैप्टन बत्रा ने उनसे कहा कि आप और मैं उसे निकाल कर लाएंगे. उन्होंने अपने आप को सूबेदार रघुनाथ सिंह और दुश्मन की फायरिंग के बीच में रखा और कहा कि आपका वापस जाना है क्योंकि आपके परिवार और बच्चे हैं. मैंने तो अभी तक शादी भी नहीं की है. मैं सिर की तरफ रहूंगा और आप पांव उठाएंगे. ये कहकर वो आगे बढ़े. अपने जवान को बचाने के दौरान ही दुश्मन के स्नाइपर से फायर हुई गोली कैप्टन बत्रा की छाती में आकर लग गयी.


इसके कुछ ही सेकेंड बाद वहां दुश्मन की आरपीजी भी फटी, जिसके टुकड़े कैप्टन बत्रा के सिर पर लग गए. कैप्टन बत्रा वहीं गिर गए. देश की रक्षा में कैप्टन विक्रम बत्रा ने अपना सर्वोच्च बलिदान दे दिया. सिर्फ 24 साल की उम्र में कैप्टन बत्रा अमर हो गए. आज भी उनकी बहादुरी की कसमें खायी जाती हैं, उनका कोडनेम था शेरशाह यानी ‘शेरों का राजा’.


कैप्टन विक्रम बत्रा ने युद्ध में जाने से पहले कहा था या तो मैं लहराते तिरंगे के पीछे आऊंगा या तिरंगे में लिपटा हुआ आऊंगा पर मैं आऊंगा जरूर. कैप्टन विक्रम बत्रा को इस अतुल्य साहस और शौर्य के लिए भारतीय सेनाओं का सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र दिया गया.


करगिल जंग की कीमत कैप्टन विक्रम बत्रा सहित उन पांच सौ से ज्यादा जवानों को चुकानी पड़ी जिन्होंने वीरगति पायी. उन परिवारों को चुकानी पड़ रही है जिन्होंने देश की अखंडता को कायम रखने के लिए अपनी शहादत दे दी.


सेना के सूत्रों ने कहा- डेमचोक में चीनी टेंट की खबर दो साल पुरानी, राहुल गांधी ने सरकार पर बोला था हमला