मुगल इतिहास में अगर किसी चीज को सबसे अनमोल कहा जाए तो ताजमहल नहीं, बल्कि शाहजहां का प्रसिद्ध मयूर सिंहासन सबसे ऊपर आता है. यह वह आसंदी थी, जिसे बनाने में जितना सोना और जितने रत्न लगे, उतने किसी और शाही वस्तु में कभी नहीं देखे गए. कहा जाता है कि इसकी चमक देखकर विदेशी यात्री भी दंग रह जाते थे.

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शाहजहां ने गद्दी संभालने के तुरंत बाद एक ऐसा सिंहासन बनवाने का फैसला लिया जो उसकी शान के अनुरूप हो. उस्ताद साद-उल-गिलानी के नेतृत्व में इसकी शुरुआत हुई. सोना, हीरे, पन्ने, माणिक और दुनियाभर से मंगाए गए अनमोल मोती इस सिंहासन की शोभा बने. लगभग सात वर्षों की मेहनत के बाद 1635 में शाहजहां पहली बार इस पर बैठा.

दुनिया में अनोखी बनावट

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फ्रैंच यात्री ट्रेवर्नियर को शाहजहां के सिंहासन को पास से देखने का मौका मिला था. उनके मुताबिक सिंहासन के ऊपर दो मोर जड़े थे जिनके पंख रंग-बिरंगे रत्नों से चमकते थे. बीच में कल्पवृक्ष का एक सुंदर रूप था, जिसे अलग-अलग कीमती पत्थरों से सजाया गया था. पूरे सिंहासन को संभालने वाले सुनहरे स्तंभ और लटकती मोतियों की लड़ियां इसे और भी अद्भुत बनाते थे. उस समय के कई विदेशी यात्रियों ने इसे खजानों का बादशाह कहा था.

कितनी थी इसकी कीमत?

साल 1635 में मयूर सिंहासन की कीमत 10 करोड़ 70 लाख रुपये आंकी गई थी और आज के हिसाब से यह मूल्य लगभग 1.35 लाख करोड़ रुपये से भी अधिक बैठता है. दुनिया में आज तक कोई भी शाही सिंहासन इसकी बराबरी नहीं कर पाया. माना जाता है कि प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा भी कभी इसी का हिस्सा था. वहीं ADA की रिपोर्ट के मुताबिक ताजमहल को तत्कालीन समय में बनाने पर 3 करोड़ 20 लाख का खर्च आया था.

नादिर शाह की लूट और भारत से विदाई

1739 में ईरान के शासक नादिर शाह दिल्ली जीतने के बाद इस सिंहासन को अपने साथ ले गया. उसी के साथ कोहिनूर और कई अनमोल रत्न भी ईरान पहुंचे. यह घटना मुगल संपदा की सबसे बड़ी लूट में गिनी जाती है.

सिंहासन का गायब हो जाना—एक अनसुलझी पहेली

नादिर शाह की हत्या के बाद ईरान में अराजकता फैल गई. इसी उथल-पुथल में मयूर सिंहासन अचानक गायब हो गया. इतिहासकारों का मानना है कि इसे टुकड़ों में तोड़कर इसके रत्नों को अलग-अलग बेच दिया गया. कुछ हिस्से बाद में ईरानी सन थ्रोन में दिखाई पड़े, लेकिन मूल सिंहासन कभी नहीं मिला.

कोहिनूर का लंबा सफर

सिंहासन से अलग होने के बाद कोहिनूर हीरा कई हाथों से होकर पंजाब पहुंचा और 1849 में अंग्रेजों के कब्ज़े के बाद ब्रिटेन ले जाया गया. आज यह ब्रिटिश क्राउन ज्वेल्स का हिस्सा है. बाद के काल में मुगल शासकों ने इस सिंहासन की एक नकल बनाने की कोशिश की, लेकिन वह कभी असली जैसी भव्यता नहीं पा सकी. 1857 के विद्रोह में वह प्रतिकृति भी इतिहास में खो गई.

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