नई दिल्ली: कर्नाटक विधानसभा चुनाव में हारी हुई बाज़ी को पलटने के बाद शपथग्रहण समारोह के दौरान कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों की जो एकजुटता दिखी कैराना लोकसभा उपचुनाव के नतीजे ने उसे नई ज़िंदगी बख्श दी है. कैराना सहित आज के उपचुनाव के नतीजों ने साफ संकेत दे दिया है कि अगर 2019 के लोकसभा चुनाव में साझा विपक्ष मैदान में उतरता है तो मोदी के लिए मुश्किल खड़ी कर सकता है.

हिंदुत्व के जादू में लगा ज़ंग

कैराना लोकसभा सीट पर बीजेपी की हार और साझा विपक्ष की जीत के कई मायने हैं. इस जीत ने धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण की राजनीति को झटका दिया है. मुजफ्फरनगर दंगों के बाद से पश्चिमी उत्तरप्रदेश में ध्रुवीकरण की राजनीति का जोर चल रहा था. 2013 के इन दंगों के बाद से इस इलाके में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच खाई बढ़ी. 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनावों में वोट भी इन दंगों की आग औऱ जख्मों के बीच पड़े. जिसका सीधा फायदा बीजेपी उठाती नज़र आयी. मुसलमानों और जाटों के इस गढ़ में बीजेपी के आगे एसपी और बीएसपी ही नहीं, अजित सिंह की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल की जड़ें भी उखाड़ फेंकी गई. लेकिन साझा विपक्ष की रणनीति ने कैराना में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को ध्वस्त कर दिया.

साथ आए जाट-मुस्लिम

कैराना में विपक्ष ने जमकर रणनीति बनाई, एसपी,  कांग्रेस और आरएलडी ने मिलकर अपना उम्मीदवार उतारा. बीएसपी ने सीधे सीधे एलान नही किया लेकिन समर्थन विपक्ष के उम्मीदवार को ही दिया. जाटों की पार्टी मानी जाने वाली आरएलडी से एक मुसलमान को कैंडिडेट बनाया गया. ताकि जाट औऱ मुसलमान वोट साथ आ सकें. जब समीकरण साथ होते हैं तो कैमिस्ट्री भी बन जाती है. नतीजे सामने हैं. कैराना और नुरपूर की जीत ने ये भ्रम तोड़ दिया कि अभी मुसलमान कैंडिडेट का जीतना मुश्किल है. बल्कि दोनों सीटों पर जीत के साथ ये पैगाम भी चला गया कि अब दंगों की खाई काफी हद तक पाटी जा चुकी है औऱ जख्म भी भर चुके हैं.

कैराना जीत के बाद बोले आरएलडी नेता जयंत चौधरी- जिन्ना हारा, गन्ना जीता मुद्दों पर प्रचार की राजनीति  मोदी की आंधी में पत्तों की तरह उड़ते विपक्ष को ये समझ आने लगा है कि बीजेपी को मात देने के लिए अपनी रणनीति दुरूस्त करनी होगी. नए सबक के साथ विपक्ष ने अपनी खिसकती ज़मीन को पाने की जद्दोजहद शुरू की. गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव के नतीजों ने एसपी-बीएसी को आगे भी एक साथ आने पर मजबूर किया. इस एकजुटता का असर ये हुआ कि विपक्ष ने मतदाताओं के सामने मुद्दों को मजबूती से रखा. राजनीति हिंदू-मुस्लिम की बजाय इलाके के मुद्दों पर केंद्रित हो गयी. कैराना और नूरपुर के नतीजे इसके गवाह हैं, जहां गन्ने के किसान अपने बकाया राशि का रोना रोते दिखे. योगी का करिश्मा फुस इस हार ने उत्तर प्रदेश के सीएम और बीजेपी के स्टार प्रचारक योगी आदित्यनाथ के जिताऊ करिश्मे की छवि को भी धो डाला है. ऐसा माहौल बना कि जहां-जहां योगी जाते हैं, जीत बीजेपी का पीछा करती आगे आती है. योगी को प्रदेश से बाहर भी चुनाव प्रचार के लिए जमकर इस्तेमाल किया गया.  लेकिन कैराना और नूरपुर के नतीजे बताते हैं कि योगी अपनी पिच पर पस्त हो गए.

बीजेपी की आगे की राह मुश्किल

एक्सपर्ट की जुबानी में महागठबंधन की जीत बीजेपी की नींद उड़ाने के लिए काफी है. क्योंकि एसपी, बीएसपी, कांग्रेस और आरएलडी के साथ आने से बीजेपी को यूपी की हर सीट पर मुश्किल का सामना करना पड़ेगा. यहां तक कि एकजुट विपक्ष बनारस जैसी सीट में भी बीजेपी के लिए मुश्किल खड़ी कर सकता है. क्योंकि जातीय समीकरण का अंकगणित उपचुनावों में तो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर भारी पड़ता दिख रहा है.

तबस्सुम हसन की जीत के साथ ही देश में मुसलमानों की सबसे बड़ी आबादी वाले सूबे से अब एक मुसलमान सांसद भी लोकसभा में होगा. आपको बता दें कि 2014 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी का खाता नहीं खुला तो कांग्रेस मां-बेटी (सोनिया-राहुल) की सीट तक सिमट गई थी. मुलायम भी 5 सीटों (परिवार के 5 सांसद) सिमट गए थे. 80 में 71 सीटें बीजेपी और दो सीटें बीजेपी की सहयोगी अपना दल को मिली थीं.

नूरपुर उपचुनाव रिजल्ट: एसपी उम्मीदवार नईमुल हसन ने बीजेपी की अवनी सिंह को 6678 वोटों से हराया