लद्दाख: पूर्वी लद्दाख में एलएसी पर चीन से तनातनी लगातार जारी है. सोमवार को दोनों देशों के सैन्य कमांडर्स और राजनयिकों के बीच मोल्डो में 14 घंटे लंबी चली बातचीत भी बेनतीजा रही. ऐसे में बेहद जरूरी है कि लाइन ऑफ एक्चुयल कंट्रोल को भारतीय सैनिक 'डोमिनेट' करते रहें. अगर ऐसा नहीं किया तो घात लगाए चीनी सैनिक कहीं पर भी घुसपैठ कर सकते हैं. एलएसी पर आईटीबीपी के जवान कैसे कर रहे हैं सरहद की निगहबानी, देश-दुनिया को बताने के लिए एबीपी न्यूज की टीम भी उनके साथ निकली पैट्रोलिंग पर. पढ़ें, एलएसी के फॉरवर्ड एरिया से एबीपी न्यूज की ये एक्सक्लुजिव रिपोर्ट.


पूर्वी लद्दाख से सटी वास्तविक नियंत्रण रेखा पर इस वक्त मुख्य लड़ाई हाईट्स यानि उंचे उंचे पहाड़ों को 'डोमिनेट' करने की है.‌ जो सेना जितनी हाईट्स को डोमिनिट करेगी पलड़ा उसी का भारी होगा, जैसा कि भारतीय सेना ने चुशुल सेक्टर में कैलाश रेंज की पहाड़ियों पर किया है. क्योंकि पूर्वी लद्दाख में 826 किलोमीटर लंबी एलएसी 14 हजार फीट से लेकर 18 हजार फीट तक की उंचाई से गुजरती है. काराकोरम दर्रे यानि दौलत बेग ओल्डी (डीबीओ) की पैट्रोलिंग पॉइन्ट (पीपी) नंबर एक (1) से शुरू होकर डेपसांग प्लेन, गलवान घाटी, हॉट स्प्रिंग, गोगरा, फिंगर एरिया से लेकर कैलाश रेंज और डेमचोक तक यानि पीपी नंबर 65 तक ये एलएसी ऊंचे पहाड़ों से ही गुजरती है. इस एलएसी की चौड़ाई कुछ मीटर से लेकर कई सौ मीटर तक फैली है. ऐसे में भारत के लिए बेहद जरूरी है कि इस पूरी एलएसी को अपने अधिकार में किया जाए. क्योंकि चीन की फितरत है कि जहां भी कही 'गैप' दिखाई दिया फौरन वहां घुसपैठ कर अपना कब्जा जमा ले.


यही वजह है कि इंडो तिब्बत बॉर्डर पुलिस यानि आईटीबीपी के जवान दिन-रात पूरी एलएसी पर पैट्रोलिंग कर रहे हैं. इस पैट्रोलिंग में शॉर्ट रेंज पैट्रोलिंग से लेकर लॉन्ग रेंज और रेकी-पैट्रोलिंग शामिल है. लॉन्ग रेंज पैट्रोल दो-तीन दिन से लेकर एक हफ्ते और कभी कभी दस-दस दिन के लिए होती है. इस दौरान जवान अपने साथ अपना टेंट और खाने-पीने का सामान लेकर साथ चलते हैं और रोजाना कई कई किलोमीटर तक एलएसी पर गश्त देते हैं. रात होने पर भी एलएसी की उंची पहाड़ियों पर टेंट गाड़कर विश्राम करते हैं और अगले दिन फिर पैट्रोलिंग पर निकल जाते हैं.


शॉर्ट रेंज पैट्रोलिंग आईटीबीपी के जवानों के लिए रोजमर्रा का हिस्सा है. तड़के ही सैनिक अपने हथियार, पानी की बोतल और वायरलैस के साथ एलएसी की पैट्रोलिंग के लिए निकल जाते हैं. करीब चार-पांच घंटे तक वे पहाड़ों पर चढ़कर इस बात को सुनश्चित करत हैं कि चीनी सैनिकों ने कहीं घुसपैठ तो नहीं की. एक ऐसी ही शॉर्ट रेंज पैट्रोलिंग में एबीपी न्यूज की टीम भी उनके साथ गई और देखा कि भारतीय जवान अपनी सरहद की निगहबानी और सुरक्षा कैसे कर रहे हैं.


ऐसे ही आईटीबीपी की रेकी-पैट्रोलिंग एक कंपनी कमांडर के नेतृत्व में उन इलाकों में जाती है, जहां घुसपैठ का सबसे ज्यादा खतरा होता है. कंपनी कमांडर अपने बायनोक्योलर यानी दूरबीन से दूर दूर तक देखता है कि कहीं कोई घुसपैठ तो नहीं हो रही. क्योंकि इन इलाकों में दूर दूर तक मोबाइल फोन और कम्युनिकेशन का कोई साधन नहीं होता‌, इसलिए प्लाटून अपने साथ वायरलैस सिस्टम साथ रखकर चलती है. ताकि जरूरत पड़ने पर कंपनी हेडक्वार्टर से संपर्क किया जा सके. पैट्रोलिंग के दौरान अगर कहीं चीनी सैनिक सामने पड़ जाते हैं, तो उन्हें बैनर ड्रिल के जरिए पीछे जाने के लिए कहा जाता है. अगर बैनर ड्रिल के जरिए नहीं मानते तो उन्हें 'इंगेज' किया जाता है जोर जबरदस्ती से पीछे खदेड़ दिया जाता है.


आपको यहां पर ये बता दें कि शांति के वक्त में आईटीबीपी ही चीन से सटी 3488 किलोमीटर लंबी एलएसी पर सबसे आगे तैनात रहती है. आईटीबीपी की पोस्ट यानि चौकियां ही सबसे आगे होती हैं. लेकिन चीन से सटी एलएसी विवादित है, इसलिए थल सेना भी इन इलाकों में तैनात रहती है और आईटीबीपी के साथ ज्वाइंट पैट्रोलिंग करती है. विवाद के दौरान सेना मोर्चा संभाल लेती है, जैसा कि पिछले चार महीने से पूर्वी लद्दाख से सटी 826 किलोमीटर लंबी एलएसी यानि लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल पर चल रहा है. लेकिन लंबी एलएसी होने के चलते आईटीबीपी को भी 'गैप' भरने की जिम्मेदारी दी गई है निगहबानी की ताकि चीनी सेना किसी भी तरह घुसपैठ में कामयाब ना हो पाए.


हाल ही में भारत ने पूर्वी लद्दाख से सटी एलएसी पर 13 ऐसे गैप ढूंढे थे जहां से चीनी सेना घुसपैठ कर सकती थी. लेकिन सेना ने आईटीबीपी की मदद से उन गैप्स को भर दिया है. यही वजह है कि चीनी सेना तिलमिलाई हुई है और किसी घुसपैठ करने की लगातार फिराक में है.


आईटीबीपी की स्थापना 1962 में चीन के युद्ध के समय में ही हुई थी और चीन सीमा की रखवाली करना मुख्य चार्टर है. क्योंकि चीन से सटी दो-तिहाई सीमा (एलएसी) सुपर हाई ऑल्टिट्यूड है यानि 14 हजार से 18 हजार फीट, इ‌सलिए सभी हिमवीरों को रॉक-क्लाईम्बिंग और ट्रैकिंग ट्रैनिंग का एक अहम हिस्सा होता है. ये ट्रेनिंग उत्तराखंड के औली और मसूरी में होती है.‌ क्योंकि इतनी उंचाई पर हर तरफ बर्फ ही बर्फ होती है और वहां पर आईटीबीपी के जवान तैनात होते हैं, इसीलिए आईटीबीपी के जवानों को 'हिमवीर' का नाम भी दिया गया है.