अपने सफेद बालों और लंबी दाढ़ी के साथ वो बड़े -बड़े समारोहों में नंगे पैर ही जाया करते थे. 95 साल की उम्र तक जिसने चित्रकारी करने की कला को बरकरार रखा. वो पेंटर अपनी मृत्यु से दो सप्ताह पहले तक पेंटिंग करता रहा. जिसकी एक पेटिंग लाखों डॉलर में बिका करती थी. उस चित्रकार का काम काफी हद तक पाब्लो पिकासो से मेल खाता था. इस वजह से ही दुनिया भर के लोगों ने उन्हें भारत के पिकासो के नाम से ज्यादा जाना. ये मशहूर पेंटर कोई और नहीं एम एफ हुसैन यानी मकबूल फिदा हुसैन थे. 


हुसैन की पेटिंग ज्यादातर क्यूबिस्ट शैली में हुआ करती थी. वो कभी -कभी बेहद मजाकिया तो कभी बेहद ही उदास और गंभीर विषयों को रंगों के जरिए उकेरते थे. 


मकबूल फिदा हुसैन भारत के सबसे बेहतरीन और शायद सबसे विवादास्पद चित्रकार थे. उनकी पेटिंग ने कइयों को नाराज कर दिया और उन पर अश्लीलता का आरोप लगाया. इस सब के बाद हुसैन ने 2006 में भारत छोड़ दिया और 2010 में कतर की नागरिकता ले ली.


एमएफ हुसैन ने अपनी चित्रकारी के जरिए न सिर्फ गांधी, मदर टेरेसा, रामायण और महाभारत की कहानियां दुनिया के सामने रखी, बल्कि उन्होंने भारत के शहरों और गांवों के लोगों की जिंदगियों के रंगों को भी कैनवास में उतारा. एम.एफ हुसैन ने 9 जून, 2011 को अंतिम सांस ली. हुसैन के बारे में एक बात कही जाती थी कि चाहे सड़क हो या स्टूडियो...  वो कहीं भी पेटिंग कर सकते थे. 




सड़क पर रहने लगे... और चित्रकारी का प्रेम सिनेमा के प्रेम से जा मिला


बीबीसी ने हुसैन को श्रद्धांजलि देते हुए लिखा, "बिलबोर्ड और होर्डिंग्स पर काम करने से उन्हें बड़े कैनवास पर बोल्ड लाइनों और गहरे रंगों का इस्तेमाल करके पेंट करने में मदद मिली. पेंटिंग करने के लिए उन्होंने अपने आसपास की सड़क को गले लगा लिया. वो पेंटिंग करने के लिए बाजार की गलियों में रहने लगे. इन गलियों में वेश्याएं और सड़क विक्रेता अपना बिजनेस किया करते थे". 


यह वह समय भी था जब हुसैन का चित्रकारी के प्रति प्रेम सिनेमा के प्रेम में बदला, और दोनों का मिलना उनके लिए एक जुनून बन गया. द संडे इंडियन को दिए एक इंटरव्यू में हुसैन ने बताया था 'फिल्म अपने विचारों को व्यक्त करने का सबसे शक्तिशाली माध्यम है. इसमें अभिनेता, संवाद, गीत, संगीत और हां, रंग हैं'.


हुसैन बॉलीवुड और बॉलीवुड की सुंदरियों की तरफ खास आकर्षित थे. वह अभिनेत्री माधुरी दीक्षित से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी कई पेंटिंग में माधुरी की खूबसूरती को उकेरा. उन्हें अमृता राव, उर्मिला मातोंडकर, विद्या बालन और अनुष्का शर्मा जैसी कई अन्य बॉलीवुड अभिनेत्रियों ने आकर्षित किया था. 




हुसैन को 1930 के दशक में मुंबई के जेजे स्कूल ऑफ आर्ट में एडमिशन लेने का मौका मिला, लेकिन उनके पास फीस के पैसे नहीं थे. उन्होंने अपनी कलाकृतियों को सीधे कलेक्टरों से बेहद ही कम दामों पर बेचना शुरू किया. 1947 में उन्होंने अपनी पहली बड़ी पेंटिंग बॉम्बे आर्ट सोसाइटी की वार्षिक प्रदर्शनी में पेश की. 


उसी साल हुसैन फ्रांसिस न्यूटन सूजा के कहने पर बॉम्बे प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप के संस्थापक सदस्य बन गए. इसके बाद हुसैन भारतीय कला के सबसे प्रसिद्ध चेहरों में से एक बन गए. पूरे भारत में कई प्रदर्शनियों में उनकी पेंटिंग लगाई गई और कीमती दामों में बिकी. 1951 में उनकी पेंटिंग चीन में लगी उसके बाद यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका में भी हुसैन की पेंटिंग लगाई गई. 


विवादों के साथ हुसैन का नाता


हुसैन ने कई विवादों का सामना किया. इसकी शुरुआत तब हुई जब हिंदू राष्ट्रवादी समूहों उनके खिलाफ विरोध करना शुरू कर दिया. 1970 से उनके काम पर सवाल उठाए गए थे, लेकिन 1996 में उन्होंने ज्ञान की देवी मां सरस्वती की नग्न पेंटिंग बनाई. जिससे विवाद बहुत बढ़ गया. इस पेंटिंग को विश्व हिंदू परिषद जैसे हिंदू संगठनों से गंभीर प्रतिक्रिया मिली. एक हिंदी मासिक पत्रिका ने "एमएफ हुसैन: एक पेंटर या कसाई" शीर्षक के साथ उनकी रचनाओं को प्रकाशित किया था. 


1996 में हुसैन ने इस पेंटिंग के सिलसिले में इंडिया टुडे को दिए इंटरव्यू में कहा था 'हमें ये समझने की जरूरत है कि कला क्या है और अश्लीलता क्या है. यह मुझ पर हमला नहीं है, बल्कि संस्कृति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है'.


इसके बाद उनके खिलाफ आठ आपराधिक शिकायतें दर्ज की गईं. उनके घर पर 1998 में बजरंग दल ने भी हमला किया था और उनकी पेंटिगों को तोड़ दिया था. राजनीतिक दल शिवसेना ने भी हमले का समर्थन किया था. 


उन्होंने तब्बू-कुणाल कपूर अभिनीत फिल्म 'मीनाक्षी : ए टेल ऑफ थ्री सिटीज' बनाई. कुछ मुस्लिम संगठनों द्वारा फिल्म के एक गाने पर आपत्ति जताई गयी. विवाद बढ़ा और फिल्म को सिनेमाघरों से हटा लिया गया. अखिल भारतीय उलेमा काउंसिल ने शिकायत की कि कव्वाली गीत "नूर-उन-आला-नूर" अल्लाह के खिलाफ है.


हुसैन के बेटे ने पिता का बचाव किया था और कहा था कि कव्वाली में कोई भी शब्द किसी को नाराज करने के लिए इस्तेमाल नहीं किया गया. है. लेकिन हुसैन की फिल्म को सिनेमाघरों से वापस नहीं लिया गया. 




'गंगा और यमुना की लड़ाई' 16 लाख डॉलर में बिकी 


एम.एफ हुसैन तैयब मेहता और एसएच रजा जैसे भारतीय चित्रकारों को टक्कर देते थे. इन दोनों ही चित्रकारों की पेंटिंग 1 मिलियन से ज्यादा में बेचे गए हैं. 2008 में हुसैन की ' गंगा और यमुना की लड़ाई' क्रिस्टीज में 16 लाख डॉलर में बिकी थी. उस समय भी नीलामी घर के बाहर प्रदर्शनकारी उनकी निंदा कर रहे थे. खास बात ये थी कि हुसैन इस सब से बेफिक्र रहते थे. 


जीवन के अंत में हुसैन अपने काम के ऊपर लगाए आरोपों से निराश जरूर हो गए थे. अदालत के आदेशों के बाद उन्होंने देश छोड़ दिया था. लेकिन उन्होंने कभी भी अपनी मातृभूमि के प्रति कोई कड़वाहट नहीं दिखाई. उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा, 'मेरे साथ जो हुआ वह छोटी बात है. हम एक स्वतंत्र देश में रहते हैं, सबको आजादी है.


सीमाओं का तोड़ने वाले चित्रकार


फोर्ब्स पत्रिका में छपे एक लेख में हुसैन के बारे में लिखा गया ' भारत के पिकासो ने अपनी कला के लिए एक अलग रास्ता बनाया. उन्होंने एक दिशा में काम करने के लिए लगातार विषय बदला और काम का माध्यम भी बदला. उन्होंने न सिर्फ छोट कागज पर पेंटिंग की बल्कि बड़े बोर्ड पर भी अपनी कला दिखाई. 


उन्होंने 'थ्रू द आईज ऑफ ए पेंटर' (1967) से लेकर माधुरी-दीक्षित अभिनीत 'गज गामिनी' (2000) तक प्रिंटमेकिंग और फोटोग्राफी के साथ-साथ फिल्म निर्माण में भी अपना हाथ आजमाया. वो कोई भी काम अचानक से प्लान करते थे. हमेशा मजाकिया अंदाज लोगों को खूब भाता था. 


पद्मश्री,पद्म भूषण और पद्म विभूषण से सम्मानित
हुसैन का 9 जून 2011 को 95 वर्ष की आयु में लंदन में कार्डियक अरेस्ट से निधन हो गया. अपनी मृत्यु से एक साल पहले हुसैन ने उषा मित्तल द्वारा कमीशन किए गए भारत के इतिहास पर 32 चित्रों की एक श्रृंखला बनाने के लिए सहमति जताई थी, लेकिन, वह इनमें से केवल आठ को ही पूरा कर सके.


हुसैन को 1955 में पद्मश्री, 1973 में पद्म भूषण और 1991 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया.