नई दिल्ली: “अगर कोई ये कहता है कि वो मौत से नहीं डरता है, तो वो या तो झूठ बोल रहा है या फिर गोरखा है.” इतना अटूट विश्वास था भारत के सबसे बड़े मिलिट्री-कमांडर में से एक, फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ का‌ गोरखा रेजीमेंट के सैनिकों पर. आज मानेकशॉ की 12वीं पुण्यतिथि है और ऐसे समय में है, जब भारत और नेपाल के संबंध बेहद नाजुक मोड़ पर हैं और नेपाल में ऐसी आवाजें उठने लगी हैं कि नेपाल के गोरखा नागरिकों को भारतीय सेना में शामिल नहीं होना चाहिए.


दरअसल, नेपाल की कुछ जातियों और जनजातियों के लिए भारतीय सेना की गोरखा रेजीमेंट में भर्ती की इजाज़त है. ऐसे में भारतीय सेना में बड़ी तादाद में नेपाली मूल के गोरखा सैनिक हैं. इस गोरखा रेजीमेंट में हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, दार्जिलिंग और असम के रहने वाले गोरखा नागरिकों की भी भर्ती होती है. माना जाता है कि गोरखा सैनिक अपनी बहादुरी, कर्तव्य-परायणता और अनुशासन के लिए पूरी भारतीय सेना में जाने जाते हैं.


ऐसे ही गोरखा रेजीमेंट के अफसर थे फील्ड मार्शल मानेकशॉ जो आजादी से पहले सेना में शामिल हुए थे. हालांकि, ब्रिटिश रॉयल इंडियन आर्मी में वे फ्रंटियर रेजीमेंट में शामिल हुए थे. लेकिन देश के बंटवारें के बाद ये रेजीमेंट पाकिस्तान में चली गई थी. इसलिए मानेकशॉ गोरखा रेजीमेंट में आ गए. यहीं पर गोरखा सैनिक उन्हें सैम बहादुर के नाम से पुकारने लगे.


इस वक्त भारतीय सेना की गोरखा रेजीमेंट में एक अनुमान के मुताबिक, करीब 25-30 हजार सैनिक नेपाली मूल के हैं. लेकिन हालिया भारत-चीन-नेपाल विवाद के कारण नेपाल के कुछ प्रतिबंधित संगठनों ने नेपाली नागरिकों से गोरखा रेजीमेंट में शामिल ना होने का आहवान किया है. लेकिन जानकार मानते हैं कि जो अटूट बंधन मानेकशॉ जैसे उच्च श्रेणी के सैन्य कमांडर ने गोरखा रेजीमेंट के भारतीय सेना से स्थापित किए हैं, वे इतनी आसानी से नहीं टूटने वाले. आपको बता दें कि मौजूदा चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस), जनरल बिपिन रावत भी गोरखा रेजीमेंट के अधिकारी हैं.



पंजाब के अमृतसर में जन्में मानेकशॉ का पूरा नाम सैम होर्मूसजी फ्रेमजी जमशेदजी मानेकशॉ था. द्वितीय‌ विश्वयुद्ध के दौरान म्यांमार में एक युवा कैप्टन मानेकशॉ ने बेहद ही बहादुरी का परिचय दिया था और बुरी तरह घायल हो गए थे. इस युद्ध में उन्हें बहादुरी के लिए मिलिट्री-क्रॉस से नवाजा गया था. 1947-48 के पाकिस्तान युद्ध के दौरान वे मिलिट्री-ऑपरेशन्स डायेरेक्टरेट में तैनात थे और युद्ध की प्लानिंग से जुड़े थे.


1962 के चीन युद्ध के दौरान वे कोर कमांडर थे और अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाया था. सेना-निवृत्त होने के बाद उन्होनें एक इंटरव्यू में चीन से हुए युद्ध में हार के कारणों में सेना के राजनैतिक-करण और काबिल सैन्य कमांडर्स को दरकिनार करना बताया था.‌ उन्होनें सैन्य कमांडर्स को ‘यस-बॉस’ मानसिकता से बचने की नसीहत दी थी.


यही वजह है कि 1971 के युद्ध के दौरान जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सैम मानेकशॉ से पाकिस्तान से युद्ध करने के लिए कहा था तो उन्होनें साफ कर दिया कि सेना को युद्ध के लिए तैयार होने में छह महीने का वक्त चाहिए. लेकिन ये उनके कुशल नेतृत्व का ही नतीजा था कि भारत ने ना केवल ’71 का युद्ध जीता बल्कि पाकिस्तान के दो टुकड़े भी हो गए (टूटकर नया देश बांग्लादेश बना). इस युद्ध के बाद ही उन्हें फील्ड मार्शल (फाइव स्टार जनरल) की पदवी से नवाजा गया-सेना प्रमुख फॉर स्टार यानी चार सितारा जनरल होते हैं.



सेना से रिटायरमेंट के बाद सैम मानेकशॉ तमिलनाडु के छोटे से हिल-स्टेशन, वेलिंगटन में रहने लगे थे. वेलिंगटन में सेना का डिफेंस स्टाफ कॉलेज है, जहां से भी सेना में अपनी सेवाएं देने के दौरान जुड़े हुए थे. इ‌सलिए उनका जुड़ाव वेलिंगटन से था. वर्ष 2008 में आज ही के दिन वेलिंगटन में उन्होंने आखिरी सांस ली थी. आज वेंलिंगटन में तीनों सेनाओं की तरफ से उनके मेमोरियल पर श्रद्धांजलि अर्पित की गई.


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