रामगढ़: अफगानिस्तान में चल रहे युद्ध और बवाल के बीच भारतीय सेना की सिख रेजीमेंट ने शनिवार को अपना 175वां स्थापना दिवस मनाया. सिख रेजीमेंट दुनिया की उन चुनिदां पलटन में से एक है जिसने अफगानिस्तान में अपना परचम लहराया है. 175वें स्थापना दिवस के मौके पर झारखंड के रामगढ़ में सिख रेजीमेंट्ल ‌सेंटर में वॉर मेमोरियल पर वीरगति को प्राप्त हुए सैनिकों को श्रद्धांजलि अर्पित की गई.


रेजीमेंटल सेंटर के कमांडेंट, ब्रिगेडियर एम श्री कुमार और डिप्टी कमांडेंट, कर्नल कुमार रणविजय ने श्रद्धा-सुमन अर्पित की. इसके अलावा सिख रेजीमेंट के गौरवमयी इतिहास‌ को दर्शाते एक डाक-टिकट को भी रिलीज किया गया. इस मौके पर सिख रेजीमेंट के कर्नल-कमांडेंट, लेफ्टिनेंट जनरल पीजीके मेनन ने लेह से सैनिकों को संबोधित किया. लेफ्टिनेंट जनरल मेनन इनदिनों लेह स्थित फायर एंड फ्यूरी कोर (14वीं कोर) के कमांडर हैं जो  इनदिनों पूर्वी लद्दाख में चीन से लोहा ली रही हैं. चीनी सेना के साथ तनाव को लेकर होने वाली मिलिट्री कमांडर्स मीटिंग में भी मेनन भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं.




कई बार किए अफगानिस्तान के दांत खट्टे


अफगानिस्तान में तालिबान पर कब्जे के बाद से ही लगातार ये दावा किया जा रहा है कि अफगानिस्तान पर एलेक्जेंडर से लेकर रूस और अमेरिका तक कोई अपना परचम नहीं लहरा पाया है. लेकिन हम आज आपको भारतीय सेना की उस रेजीमेंट से मिलवाने जा रहे हैं जिसने एक-दो नहीं कई बार अफगानिस्तान के दांत खट्टे किए हैं. ये पलटन है सिख रेजीमेंट, जो इस महीने अपना 175वां स्थापना दिवस मना रही है. इस मौके पर एबीपी न्यूज पहुंचा है झारखंड के रामगढ़, जहां है सिख रेजीमेंटल सेंटर.‌


गौरतलब है कि अमेरिका के अफगानिस्तान को छोड़ने और एक बार फिर से तालिबान के कब्जे से पूरी दुनिया ये मानने लगी है कि अफगानिस्तान पर आजतक कोई देश और कोई सेना काबू नहीं कर पाई है. लेकिन  'ब्रेवेस्ट ऑफ द ब्रेवेस्ट' यानि शूरवीरों के शूरवीर के नाम से जाने जानी वाली सिख रेजीमेंट पलटन ने एक नहीं कई बार अफगानिस्तान में अपनी विजय पताका को फहराया है. दो बार इस पलटन को अफगानिस्तान  में विजय के लिए 'बैटल ऑनर' के खिताब से नवाजा गया है. पहली बार सिख रेजीमेंट को वर्ष 1880 में अफगानिस्तान के कंधार और काबुल में अपना परचम लहराने के लिए और उसके बाद 1919 में प्रथम विश्व-युद्ध के दौरान.


खालसा-आर्मी कैसे बनी सिख रेजीमेंट


दरअसल 19वीं सदी में महाराज रणजीत सिंह की खालसा-आर्मी पहली ऐसी फौज थी जिसने अफगानिस्तान को युद्ध में हराया था. अफगानिस्तान के खिलाफ खालसा आर्मी की बहादुरी से अंग्रेज इतने प्रभावित हुए कि रणजीत सिंह की मौत के बाद ब्रिटिश सरकार ने 1846 में इसी खालसा आर्मी को भारतीय सेना में शामिल कर लिया, जो बाद में सिख रेजीमेंट के नाम से जानी गई. यही सिख रेजीमेंट शनिवार यानि 28 अगस्त 2021 को अपना 175वां स्थापना दिवस मना रही है.


सिख रेजीमेंट के 175वें स्थापना दिवस के मायने सिर्फ डांस, भंगड़ा और हर्षोल्लास ही नहीं है. इ‌सके मायने ये है कि आने वाले खतरों के लिए अपनी पलटन और सैनिकों को तैयार करना. ये तैयारी शुरू होती है सिख पलटन के युद्धघोष, 'बोले सो निहाल, सत श्री अकाल' से. इस युद्धघोष को पिछले 175 साल से अफगानिस्तान से लेकर अफ्रीका और चीन से लेकर करगिल युद्ध तक सुनाई पड़ता है. ये वही सिख‌ रेजीमेंट है जिसने बहादुरी की पराकाष्ठा को लांघते हुए सारागढ़ी का युद्ध लड़ा था. एक चौकी के कब्जो को लेकर हुई लड़ाई में सिख रेजीमेंट के 21 शूरवीरों ने करीब दस हजार अफगानी लड़ाकों को धूल चटाई थी. क्योंकि सिख रेजीमेंट का आदर्श-वाक्य है, 'निश्चय कर अपनी जीत करूं'.




1962 के युद्ध में दिया था अदम्य साहस और वीरता का परिचय


सिख‌ रेजीमेंट की बहादुरी और शौर्य के किस्से सुनाना शुरू हो जाएं तो शायद सदियां बीत जाएं. लेकिन आपको इतना जरूर बता देंते है कि भारतीय सेना का 'इंफेंट्री-डे' सिख रेजीमेंट की एक पलटन के 1948 के पाकिस्तान युद्ध में श्रीनगर एयरपोर्ट पर लैंडिंग करने और दुश्मन के हाथों में पड़ने से बचाने के लिए मनाया जाता है. यही नहीं जिस 1962 के युद्ध में भारतीय सेना को चीन के हाथों पराजय का सामना करना पड़ा था, उस युद्ध में भी सिख रेजीमेंट ने अदम्य साहस और वीरता का परिचय दिया था.


सिख रेजीमेंट के सूबेदार जोगेंद्र सिंह को अरूणाचल प्रदेश में चीनी सैनिकों को धूल चटाने के लिए वीरता के सबसे बड़े मेडल, परमवीर चक्र से नवाजा गया था. इससे पहले चीन के बॉक्सर विद्रोह को दबाने के लिए भी ब्रिटिश राज ने सिख रेजीमेंट को भेजा था. आज भी चीन की राजधानी पीकिंग (नया नाम बीजिंग) से लाई गए गई गौतम बुद्ध की मूर्ती रामगढ़ स्थित सिख रेजीमेंटल सेंटर में सुशोभित हैं.


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