भारत के महान मुगल सम्राट अकबर ने लगभग 12 साल तक लगातार अजमेर की यात्राएं की और ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर हाजिरी लगाई, लेकिन 1579 के बाद अचानक उसने अजमेर जाना बंद कर दिया. सवाल यह है कि आखिर क्यों? इतिहासकारों का कहना है कि अकबर का धार्मिक नजरिया धीरे-धीरे बदल रहा था. वह केवल इस्लाम तक सीमित नहीं रहना चाहता था, बल्कि सभी धर्मों को मिलाकर एक नया रास्ता बनाना चाहता था. इसी सोच से उसने दीन-ए-इलाही की शुरुआत की.
अब्दुल क़ादिर बदायूंनी ने क्या कहा? मुल्ला अब्दुल क़ादिर बदायूंनी ने अपनी किताब मुन्तख़ब-उत-तवारीख़ में लिखा है कि अकबर की दरगाह पर आस्था को देखकर कुछ लोग मुस्कुराए और बोले, "कितनी हैरानी की बात है कि बादशाह ख्वाजा में विश्वास करता है लेकिन पैगंबर की राह छोड़ चुका है." बदायूनी ने व्यंग्यात्मक कविताओं के जरिए अकबर पर निशाना साधा और कहा कि यह रवैया मुसलमानों को नाराज कर रहा था. इतिहासकारों का मानना है कि इस समय तक अकबर के धार्मिक विचार बदल चुके थे. वह किसी एक धर्म में विश्वास करने के बजाय “मानव धर्म” की ओर बढ़ रहा था. यही वह दौर था जब उसने दीन-ए-इलाही की नींव रखी. अकबर स्वयं को अल्लाह का दूत मानने लगा था.
मुल्लाओं ने अकबर के इस रुख पर दी तीखी प्रतिक्रिया मुल्लाओं ने अकबर के इस रुख पर तीखी प्रतिक्रिया दी. कई ने उसके खिलाफ फतवे जारी किए और यहां तक कि उसके भाई हकीम मिर्ज़ा को गद्दी पर बैठाने की योजना भी बनाई. इसी विवाद के कारण अकबर ने अजमेर यात्राएँ बंद कर दीं. हालांकि उसने अजमेर से अपना संबंध पूरी तरह नहीं तोड़ा. 1580 में अकबर ने अब्दुर्रहीम खानखाना को अजमेर का नाजिम नियुक्त किया और उसी वर्ष अपने पुत्र मिर्ज़ा दानियाल को दरगाह पर भेजा. दानियाल ने वहाँ फ़क़ीरों में 25,000 रुपये बांटे. बाद में अकबर की पत्नी सलीमा बेगम और उसकी बहनें भी अजमेर पहुंचीं, जिन्हें शहजादा सलीम सुरक्षा के साथ आगरा लेकर आया. इतिहासकार मानते हैं कि 1579 के बाद अकबर का ध्यान धार्मिक आस्था से हटकर अपने नए विचारों और सत्ता को मजबूत करने पर केंद्रित हो गया था. यही वजह रही कि उसने अजमेर की लगातार यात्रा पूरी तरह बंद कर दीं.
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