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शाजिया बानो जब अब्बास खान के घर शादी करके जाती हैं तो वहां उन्हें तीन प्रेशर कुकर दिखते हैं. एक की रबड़ खराब है, एक की सीटी खराब है, जब वो पूछती हैं तो पता चलता है कि जब कुकर खराब हो जाता है तो खान साहब उसे ठीक नहीं करवाते, बाजार से नया ले आते हैं. और यही काम जब खान साहब अपनी बीवी के साथ करते हैं तो वो मांगती है अपना है. अपने शौहर से बेपनाह मोहब्बत करने वाली बानो जब ये कहती है कि कभी कभी मोहब्बत काफी नहीं होती. हमें अपनी इज्जत भी चाहिए तो आप भी बानो के हक की लड़ाई में उसके साथ हो लेते हैं. ये इस साल की सबसे हार्ड हिटिंग फिल्म है. ये फिल्म आपको हिला डालती है, रुला डालती है, और बहुत कुछ महसूस करा जाती है और सबसे बड़ी बात ये महसूस करा जाता है कि हम खुशनसीब हैं कि सिनेमा के इस कमर्शियल दौर में भी हम ऐसी जेनरेशन में पैदा हुए जहां यामी गौतम जैसी एक्ट्रेस हैं. यामी हर अवॉर्ड, हर सम्मान की हकदार हैं और इस फिल्म को देखने के बाद आप खुद कहेंगे कि ये उनका हक है और हां अक्खा बॉलीवुड एक तरफ और इमरान हाशमी एक तरफ. ये सुना था तो हक देखकर महसूस कर लीजिएगा अच्छे से.

कहानी

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ये कहानी है शाजिया बानो की जो अपने पति और तीन बच्चों के साथ एक आम पारिवारिक जिंदगी बिता रही होती है कि एक दिन अचानक उसका पति दूसरी बीवी ले आता है. बानो अपने पति को बांटने को तैयार नहीं है. वो घर छोड़ देती है, लेकिन पति गुजारा भत्ता भी देना बंद कर देता है तो वो कोर्ट जाती है. एक ऐसी लड़ाई लड़ने जो हर औरत की लड़ाई है. ये फिल्म सुप्रीम कोर्ट के 1985 के लैंडमार्क जजमेंट पर आधारित है. इसमें कई दूसरे कोर्ट केस का भी जिक्र किया गया है, पूरी कहानी आप थिएटर जाकर देखिएगा.

कैसी है फिल्म

ये फिल्म एक एक्सपीरियंस है. बानो के साथ आप उसकी कहानी में चलते हैं, उसके साथ हंसते हैं, रोते हैं, उसके साथ उसका हक मांगते हैं. इस फिल्म का एक एक सीन कमाल है. एक एक फ्रेम कमाल है. फर्स्ट हाफ बिल्ड अप में जाता है और वो जरूरी है. लेकिन सेकेंड हाफ में कोर्ट के सीन कमाल हैं, कोई मेलो ड्रामा नहीं, कोई धूम धड़ाम वाला बैकग्राउंड म्यूजिक नहीं, बस कमाल की राइटिंग, कमाल का परफॉर्मेंस और कमाल का एक्सपीरिंयंस. ये फिल्म बताती है कि कुरान रखने पढ़ने और समझने में बहुत फर्क होता है. ये फिल्म कोई एजेंडा नहीं चलाती, किसी को बदनाम नहीं करती, किसी को ग्लोरिफाई नहीं करती, बस एक औरत के हक की बात करती है. जब बानो ये कहती है कि हमारे बच्चे अपनी जिंदगी हाई कोर्ट की तारीखों से नापते हैं और उनके तो खेल ही अलग हैं वो वकील और जज बनकर खेल खेलते हैं जो दूसरे बच्चों को समझ ही नहीं आते. तो आप अंदर तक हिल जाते हैं, ये फिल्म हर हाल में देखिए. क्योंकि ऐसी फिल्में देखना जरूरी है, ऐसी फिल्में आप देखेंगे तो ही बनेंगी और ऐसी फिल्में सिनेमा की आत्मा को जिंदा रखती हैं. टैलेंटेड एक्टर्स को ये दिखाने का मौका देती हैं कि एक्टिंग अभी जिंद.

एक्टिंग

ये फिल्म देखकर आपको यकीन हो जाना चाहिए कि यामी गौतम से बेहतर एक्ट्रेस इस देश में नहीं है. वो स्क्रीन पर बानो हैं, बात करते हैं हुए अपने सिर के पल्लू को ठीक करना, शादी से एक दिन पहले अब्बास से मिलकर जो वो मुस्कुराहट देती हैं. जिस तरह से कोर्ट में घबराहट में पहले your honour फिर सर और फिर माई लॉर्ड कहती है वो इतना नेचुरल है कि आप उनके मुरीद हो जाते हैं. एक सीन में अब्बास से तलाक के बाद एक दीवार पर अपना हाथ रगड़ते हुए चलती हुई आती हैं. बिना कुछ बोले, शास्त्रों में शायद इसी को कमाल की एक्टिंग कहा गया है. जिस तरह से वो सिलाई मशीन चलाती हैं, अब्बास के खिलाफ लड़ते हुए भी उसे अपना पति होने की इज्जत देती हैं वो कमाल है. शायद किसी रिव्यू में किसी एक्टर की एक्टिंग पर लिखने के लिए इतने शब्द नहीं मिल पाते लेकिन यहां शब्द कम पड़ रहे हैं. इमरान हाशमी जब क्लाइमैक्स से पहले एक मोनोलोग बोलते हैं तो आप कन्विंस हो जाते हैं कि ये तो सही है. और ये है कमाल की एक्टिंग, इमरान का किरदार अगर मजबूत नहीं होता तो बानो का किरदार फीका पड़ जाता है. और इमरान ने वो शानदार काम किया है कि आप मान लेते हैं कि अक्खा बॉलीवुड एक तरफ और इमरान हाशमी एक तरफ. जब इमरान की दूसरी पत्नी उनसे कहती हैं कि हमारे ख्याल से आप गलत हैं और बानो सही तो जिस तरह से इमरान उनसे कहते हैं कि अपने ख्याल पर्सनल डायरी में लिख लिया करो वो इस किरदार को एक अलग ही गहराई देता है. वो किसी फिल्मी वकील की तरह चिल्लाते नहीं हैं, बस अपनी बात रखते हैं. और aseem hattangady य़ामी के पिता बने हैं और जब बार बार कहते हैं कि वो लड़की नहीं है. बानो नाम है उसका, बेटी है मेरी, तो आपको एक बाप का अपनी बेटी के साथ मजबूती से खड़ा होना महसूस होता है. उनका काम जबरदस्त है, राहुल मित्रा जज के किरदार में जमे हैं. विजय विक्रम सिंह भी जज के किरादर में शानदार हैं.

राइटिंग और डायरेक्शन

रेशु नाथ ने ये फिल्म लिखी है और उन्होंने बता दिया है कि राइटर बाप होता है, बिना चीखे चिल्लाए जब कोई बात आपके दिल तक पहुंचती है तो वो कमाल की राइटिंग का ही असर होता है. सुपर्ण वर्मा का डायरेक्शन कमाल है, उन्होंने इस दौर को परफेक्शन से दिखाया है. छोटी छोटी चीजों का ख्याल रखा है, और इसके लिए उनकी जितनी तारीफ की जाए कम है.

रेटिंग- 4 स्टार्स