Vedas: वेद हमारे प्राचीनतम ग्रंथ है. वेदों की अनेक शाखाएं और उपशाखाएं हैं. आज इन्हीं वेदों के बारे में एक सूक्ष्म चिंतन किया जाए. तैत्तिरीय आरण्यक में एक कथा आती है उसके अनुसार, एक बार भरद्वाज ने तीन आयु को पार करने के बाद अर्थात बाल्य, यौवन और वार्धक्य में ब्रह्मचर्य का ही अनुष्ठान किया.


वेद तो अनन्त हैं' "अनन्ता वै वेदाः


जब वे जीर्ण हो गए, तब इन्द्र ने उनके पास आकर कहा "भरद्वाज! चौथी आयु तुम्हें दूं तो तुम उस आयु में क्या करोगे?" उन्होंने उत्तर दिया- 'मैं वेदों का अन्त देख लेना चाहता हूं. अतः जितना भी जीवन मुझे दिया जाएगा, मैं उससे ब्रह्मचर्य का ही अनुष्ठान करता रहूंगा और वेद का अध्ययन करूंगा.' इन्द्र ने भरद्वाज को तीन महान पर्वत दिखलाए, जिनका कहीं ओर छोर नहीं था.


इन्द्र ने कहा- "ये ही तीन वेद हैं, इनका अन्त तुम कैसे प्राप्त कर सकते हो?" आगे इन्द्र ने तीनों में से एक-एक मुट्ठी भरद्वाज को देकर कहा- 'मानव-समाज के लिए इतना ही पर्याप्त है, वेद तो अनन्त हैं' "अनन्ता वै वेदाः"।


एक वेद के चार विभाग हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद 


वेद अंक के अनुसार, इन्द्र के द्वारा प्राप्त हुई यह तीन मुट्ठी ही वेदत्रयी (ऋक्, यजुः, साम) के रूप में प्रकट हुई. द्वापरयुग की समाप्ति के पूर्व इन तीनों शब्द-शैलियों की संग्रहात्मक एक विशिष्ट अध्ययन करने लायक़ शब्द राशि ही वेद कहलाती थी. उस समय भी वेद का पढ़ना और अभ्यास करना सरल कार्य नहीं था. कलियुग में मनुष्यों की शक्तिहीनता और कम आयु होने की बात ध्यान में रखकर वेदपुरुष भगवान नारायण के अवतार कृष्णद्वैपायन श्री वेद व्यास जी ने यज्ञानुष्ठान आदि के उपयोग को दृष्टिगत रखकर एक वेद के चार विभाग कर दिए. ये ही विभाग आजकल ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के नाम से प्रसिद्ध हैं.


वेदों की 1131 शाखाओं में सिर्फ 12 शेष


प्रत्येक वेद की अनेक शाखाएं बताई गई हैं. यथा- ऋग्वेद की 21 शाखा, यजुर्वेद की 101 शाखा, सामवेद की 1000 शाखा और अथर्ववेद की 9 शाखा है. इस तरह कुल 1131 शाखाएं हैं. इन 1131 शाखाओं में से केवल 12 शाखाएं ही मूलग्रन्थ में उपलब्ध हैं, जिनमें ऋग्वेद की 2, यजुर्वेद की 6, सामवेद की 2 तथा अथर्ववेद की 2 शाखाओं के ग्रन्थ प्राप्त होते हैं. लेकिन इन 12 शाखाओं में से केवल 6 शाखाओं की अध्ययन-शैली ही वर्तमान में प्राप्त है. मुख्य रूप से वेद की इन प्रत्येक शाखाओं की वैदिक शब्दराशि चार भागों में प्राप्त है : - 


(1) 'संहिता' वेदका मन्त्रभाग,
(2) 'ब्राह्मण' जिसमें यज्ञानुष्ठान की पद्धति के साथ फल प्राप्ति तथा विधि आदि का निरूपण किया गया है, 
(3) 'आरण्यक'- यह भाग मनुष्य को आध्यात्मिक बोध की ओर झुकाकर सांसारिक बन्धनों से ऊपर उठाता है. संसार त्याग की भावना के कारण वानप्रस्थ आश्रम के लिए अरण्य (जंगल) में इसका विशेष अध्ययन तथा स्वाध्याय करने की विधि है, इसलिए इसे आरण्यक कहते हैं और 
(4) 'उपनिषद्' - इसमें अध्यात्म- चिन्तन को ही प्रधानता दी गई है. इनका प्रतिपाद्य ब्रह्म तथा आत्मतत्त्व हैं.


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