हिंदू धर्म के अनुसार प्रत्येक मनुष्य एक सीमित अवधि के लिए इस संसार में आता है. परमपिता ने हमारे हिस्से में जितना सुख-दुख लिखा है, उसे हमें हर हाल में भोगना पड़ता है. इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति की नियति तय है. यही प्रारब्ध यानी भाग्य है.


भगवान राम को उनके गुरु ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने कर्म की महत्ता बताते हुए समझाया है कि कर्म से भाग्य को बदला जा सकता है.
हमारे भाग्य से हमारा पुरुषार्थ यानी कर्म जुड़ा हुआ है. इन दोनों के बीच गहरा रिश्ता होता है. कुछ लोग कहते हैं कि जब प्रत्येक मनुष्य की नियति तय है. उसके भाग्य में जो लिखा है, वही होना है तो फिर कर्म करके क्या लाभ?


इसी तरह दूसरे मत के लोगों का मानना है कि भाग्य नाम की कोई चीज नहीं होती, जितना और जैसा कर्म किया जाता है उसी के अनुरूप फल मिलता है. असल में प्रारब्ध और पुरुषार्थ दोनों की ही अपनी महत्ता है. प्रारब्ध के बगैर पुरुषार्थ अधूरा है और पुरुषार्थ के बगैर प्रारब्ध यानि भाग्य.


जगंल में रुपया खोया


कथा के अनुसार गुरु वशिष्ठ कहते हैं कि एक गरीब आदमी ने बड़ी मेहनत कर के एक रुपया कमाया था. वह उसे लेकर कहीं जा रहा था. जंगल से गुजरते हुए उस आदमी का रुपया जंगल के पत्तों में कहीं गिर जाता है. वास्तव में उस व्यक्ति के भाग्य में रुपया था ही नहीं. इसलिए वो जंगल में खो गया था.


उस गरीब आदमी को रुपया खोने का बहुत दुःख हुआ. उसने जंगल के सारे पत्ते उलट डाले. सारे पत्ते उलटने के बाद उसे रुपया तो नहीं मिला बल्कि श्यामांतक मणि मिल गई. वह बहुत खुश हो गया. उसे रुपया से ज्यादा कीमती मणि मिल गई थी. यह कथा सुनाते हुए गुरु वशिष्ठ कहते हैं कि हे राम! उस गरीब आदमी के प्रारब्ध में रुपया नहीं था. उसका पुरुषार्थ इतना बड़ा हो गया कि वह संघनित हो कर श्यामांतक मणि के रूप में परिवर्तित हो गया.