Ram Aayenge: रामायण और रामचरित मानस हिंदू धर्म का पवित्र ग्रंथ हैं. महर्षि वाल्मीकि ने रामायण और गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रामचरित मानस की रचना गई है. रामचरित मानस में जहां रामजी के राज्यभिषेक तक का वर्णन मिलता है, तो वहीं रामायण में श्रीराम के महाप्रयाण (परलोक गमन) तक का वर्णन किया गया है.


भगवान राम का जन्म सृष्टि में श्रीहरि के 7वें मानव अवतार के रूप में हुआ. त्रेतायुग के अंत में चैत्र शुक्ल की नवमी तिथि को रामजी ने राजा दशरथ और रानी कौशल्या के घर जन्म लिया. समय बीतता गया और राजा दशरथ के चारों पुत्र किशोर हो गए.


राम आएंगे के आठवें भाग में हमने जाना कि रामजी समेत राजा दशरथ के चारों पुत्रों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए गुरु वशिष्ठ के आश्रम भेजा गया और कम समय में ही उन्होंने सारी विद्याओं को सीख लिया. इस संबंध में तुलसीदास जी लिखते हैं- भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥ गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई।।




यानी, जैसे ही सब भाई कुमारवस्था के हुए गुरु, पिता और माता ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार कराया और  गुरु के आश्रम पढ़ने गए. कुछ ही समय में उन्हें सारी विद्या आ गई.


राजा दशरथ अपने चारों पुत्रों के रूप-गुण को देख बहुत खुश होते थे और गर्व करते थे. रामजी का चरित्र तो सौ करोड़ यानी अपार है. श्रुति और शारदा भी उनका वर्णन नहीं कर सकते. राम अनंत अनंत गुनानी। जन्म कर्म अनंत नामानी।। यानी भगवान राम अनंत हैं और उनके गुण भी अनंत हैं. जन्म, कर्म और नाम भी अनंत हैं.




रामजी के चरित्र और गुणों को देख-देखकर राजा दशरथ मन में बड़े हर्षित होते थे. राजा को उनके चारों पुत्र प्राण से प्यारे थे. लेकिन एक दिन ज्ञानी महामुनि विश्वामित्र ने राजा से उनके प्राण से प्यारे पुत्रों को मांग लिया. राम आएंगे के नौवें भाग में आज जानेंगे, जब विश्वामित्र ने राजा दशरथ से प्राण से प्यारे पुत्रों को मांगा तो क्या हुआ?


यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥
बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी॥


अर्थ:- यह सब चरित्र मैंने गाकर बखान किया. अब आगे की कथा मन लगाकर सुनो. ज्ञानी महामुनि विश्वामित्रजी वन में पवित्र स्थान में जाकर बसते थे.


जहँ जप जग्य जोग मुनि करहीं। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं॥
देखत जग्य निसाचर धावहिं। करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥


अर्थ:-जहां वे मुनि जप, यज्ञ और योग करते थे, परन्तु मारीच और सुबाहु से बहुत डरते थे. यज्ञ देखते ही राक्षस दौड़ पड़ते थे और उपद्रव मचाते थे, जिससे मुनि दुखी रहते थे.


गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी॥
तब मुनिबर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥


अर्थ:- गाधि के पुत्र विश्वामित्र के मन में चिन्ता हुई कि ये पापी राक्षस भगवान के मारे बिना न मरेंगे. तब मुनि ने मन में विचार किया कि प्रभु ने पृथ्वी का भार हरने के लिए अवतार लिया है.


एहूँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौं दोउ भाई॥
ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मैं देखब भरि नयना॥


अर्थ:-इसी बहाने जाकर मैं उनके चरणों का दर्शन करूं लूंगा और विनती करके दोनों भाइयों को ले आऊंगा. जो ज्ञान, वैराग्य और सब गुणों के धाम हैं, उन प्रभु को मैं आंख भरकर देखूंगा.


बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार।
करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार॥


अर्थ: बहुत प्रकार से मनोरथ करते हुए जाने में देर नहीं लगी. सरयूजी के जल में स्नान करके वे (विश्वामित्र) राजा के द्वार पहुंचे.


मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयउ लै बिप्र समाजा॥
करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी॥


अर्थ:-राजा दशरथ ने जब मुनि के आने की खबर सुनी, तो वे ब्राह्मणों के समाज को साथ लेकर मिलने गए और दण्डवत्‌ करके मुनि का सम्मान करते हुए उन्हें लाकर अपने आसन पर बिठाया.


चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा॥
बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिबर हृदयँ हरष अति पावा॥


अर्थ:- मुनि के चरण धोकर पूजा की और कहा- मेरे समान धन्य आज दूसरा कोई नहीं. फिर अनेक प्रकार के भोजन करवाए, जिससे श्रेष्ठ मुनि ने अपने हृदय में बहुत हर्ष प्राप्त किया.


पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी॥
भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा॥


अर्थ:- इसके बाद राजा दशरथ ने चारों पुत्रों को मुनि को प्रणाम करने के लिए कहा. रामजी को देखते ही मुनि अपनी देह की सुधि भूल गए. वे श्री रामजी के मुख की शोभा देखते ही ऐसे मग्न हो गए, मानो कोई चकोर पूर्ण चन्द्रमा को देखकर लुभा गया हो.


तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ॥
केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा॥


अर्थ:- राजा ने मन में हर्षित होकर कहा- हे मुनि! इस प्रकार कृपा तो आपने कभी नहीं की. आज किस कारण से आपका शुभागमन हुआ? कहिए, मैं उसे पूरा करने में देर नहीं लगाऊंगा.


सुर समूह सतावहिं मोही। मैं जाचन आयउँ नृप तोही॥
अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥


अर्थ:- मुनि ने कहा- हे राजन्‌! असुरों के समूह मुझे बहुत सताते हैं इसीलिए मैं तुमसे कुछ मांगने आया हूं. तुम मुझे छोटे पुत्र सहित श्री रघुनाथजी को दे दो. असुरों के मारे जाने के बाद मैं सुरक्षित हो जाऊंगा.


देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान।
धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान॥


अर्थ:-हे राजन्‌! इन्हें प्रसन्न मन से दो. मोह और अज्ञान को छोड़ दो. हे स्वामी! इससे तुमको धर्म और सुयश की प्राप्ति होगी और इनका भी परम कल्याण होगा.


सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी॥
चौथेंपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी॥


अर्थ:- इस अप्रिय वाणी को सुनकर राजा दशरथ का हृदय कांप उठा और उनके मुख की चमक फीकी पड़ गई. उन्होंने कहा- हे ब्राह्मण! मैंने चौथेपन में चार पुत्र पाए हैं, आपने विचार कर बात नहीं कही.


मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा॥
देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं॥


अर्थ:-हे मुनि! आप पृथ्वी, गो, धन और खजाना मांग लीजिए, मैं आज बड़े हर्ष के साथ आपको अपना सबकुछ दे दूंगा. देह और प्राण से अधिक प्यारा कुछ भी नहीं होता, मैं उसे भी एक पल में दे दूंगा.




अर्थ:- सभी पुत्र मुझे प्राणों की तरह प्यारे हैं, उनमें भी हे प्रभो! राम को तो किसी प्रकार भी देते नहीं बनता. कहां अत्यन्त डरावने और क्रूर असुर और कहां मेरे परम किशोर अवस्था के सुकुमार सुंदर पुत्र!


सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी॥
तब बसिष्ट बहुबिधि समुझावा। नृप संदेह नास कहँ पावा॥


अर्थ:-प्रेम रस में सनी हुई राजा दशरथ की ये बातें सुनकर ज्ञानी मुनि विश्वामित्रजी ने हृदय में बड़ा हर्ष माना. तब उन्होंने राजा को बहुत तरह से समझाया, जिसके बाद राजा का संदेह खत्म हो सका.


अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए॥
मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥


अर्थ:-राजा ने दोनों पुत्रों (राम और लक्ष्मण) को बुलाया और गले से लगाकर बहुत प्रकार से उन्हें शिक्षा दी और कहा- हे नाथ! ये दोनों पुत्र मेरे प्राण हैं. हे मुनि! अब आप ही इनके पिता हैं, दूसरा कोई नहीं.




 सौंपे भूप रिषिहि सुत बहुबिधि देइ असीस।
जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस॥


अर्थ:-राजा ने बहुत प्रकार से आशीर्वाद देकर पुत्रों को ऋषि को सौंप दिया. इसके बाद प्रभु महल में माता कौशल्या के पास गए और उनके चरणों में सिर नवाकर चले.


पुरुष सिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन।
कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन॥208 ख॥


अर्थ:-पुरुषों में सिंह रूप दोनों भाई (राम-लक्ष्मण) मुनि का भय खत्म करने के लिए प्रसन्न होकर महल से चले गए. वे कृपा के समुद्र, धीर बुद्धि और सम्पूर्ण विश्व के कारण के भी कारण हैं.


अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला॥
कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा॥


अर्थ:- भगवान के लाल नेत्र, चौड़ी छाती, विशाल भुजाए, नील कमल और तमाल के वृक्ष की तरह श्याम शरीर है, कमर में पीताम्बर और सुंदर तरकस कसे हुए हैं. दोनों हाथों में धनुष और बाण हैं.


स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। बिस्वामित्र महानिधि पाई॥
प्रभु ब्रह्मन्यदेव मैं जाना। मोहि निति पिता तजेउ भगवाना॥


अर्थ:- श्याम और गौर वर्ण के दोनों भाई (राम और लक्ष्मण) परम सुंदर हैं. विश्वामित्र को महान निधि प्राप्त हो गई. वे सोचने लगे- मैं जान गया प्रभु ब्राह्मणों के भक्त हैं. मेरे लिए भगवान ने अपने पिता को भी छोड़ दिया.


चले जात मुनि दीन्हि देखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥
एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा।।


अर्थ:- रास्ते में चलते हुए मुनि ने ताड़का को दिखलाया. शब्द सुनते ही वह क्रोध करके दौड़ी. राम ने एक ही बाण से उसके प्राण हर लिए और फिर जानकर उसे अपना दिव्य स्वरूप दिया.




आयुध सर्ब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि।
कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि॥


अर्थ:- इसके बाद सब अस्त्र-शस्त्र समर्पण कर मुनि रामजी को आश्रम ले आए और उन्हें परम हितू जानकर भक्तिपूर्वक कंद, मूल और फल का भोजन कराया.


(राम आएंगे के अगले भाग में जानेंगे ताड़का कौन थी, जिसका वध कराने के लिए विश्वामित्र को राजा दशरथ से राम और लक्ष्मण को मांगना पड़ा. साथ ही जानेंगे क्यों ताड़का ऋषियों से यज्ञ में डालती थी बाधा)


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