सफलता अनुभवगम्य है. अनुभव जीवन की सीखें हैं. विद्यालय शिक्षा का सबसे प्रखर उदाहरण हैं. विद्यालयों के समान ही समाज की सामान्य चर्चाओं में अथाह ज्ञान समाया है. यह ज्ञान व्यवहारिक होने से और अधिक प्रभावी है. व्यवहारिक ज्ञान की महत्ता के लिए एक कहावत भी चलन में है कि ‘पढ़े होना लेकिन गुने न होना‘ अर्थात् कोरा किताबी ज्ञान होना. बैठकें, चौपालें और सामूहिक वार्तालाप ज्ञान को व्यवहार और विषय दोनों के स्तर पर समृद्ध करती हैं. चर्चाओं में मनोयोग से शामिल होने वाले जल्द आगे बढ़ते हैं.


रामचरितमानस के रचयिता तुलसीदास लिखकर गए हैं कि ‘बिनु सत्संग विवेक न होई‘. अर्थात् सत्संग के बिना विवेक नहीं हो सकता है. कारण, ज्ञान विवेक का मूल है. ज्ञान सत्संग से बढ़ता है. निखरता है. स्पष्टता पाता है. ज्ञानशील ही विवेकवान बनता है.


आज वर्तमान में लोग ऑनलाइन और एकांत के प्रेमी हैं. एकांत पुस्तकीय क्षमता में तो सहायक होता है. वास्तविक शिक्षा तो उन लोगों के बीच ही बढ़ सकती है जिन लोगों के मध्य इसका प्रयोग किया जाना है. ऐसे में हर व्यक्ति को प्रयास करना चाहिए कि वह अपना समूह चुने और चर्चा करे. चर्चा से सब हल संभव होता है. लोगों से कैसे पेश आना है. यह भी व्यक्ति सहज सीख लेता है. समाज में आपसी व्यवहार की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है. सप्पूर्ण समाज का ताना बाना इसी पर निर्भर करता है.


कॉरपोरेट और बिजनेस संस्थान चर्चाओं का महत्व भलीभांति समझते हैं. वे इस पर सर्वाधिक जोर देते हैं. बड़े संस्थानों की महत्वपूर्ण जगहों में एक जगह मीटिंग हॉल होती है. इस मीटिंग हॉल की महत्ता से ही समझा जा सकता है कि चर्चा का व्यवहारिक ज्ञान और व्यक्ति की सफलता मेें कितना महती योगदान है.