Acharya Prashant: आचार्य प्रशांत कहते हैं कि मन को काबू में कैसे रखें यह सवाल सुनने में सही लगता है, लेकिन असल में यही सबसे बड़ी गलतफहमी है. उनके अनुसार मन कोई अलग चीज नहीं है, जिसे दबाकर या कंट्रोल करके सुधारा जा सके.
मन हमारी ही छाया है. हम जैसे होते हैं, मन भी वैसा ही बन जाता है. वे बताते हैं कि मन को बदलने की कोशिश करना ऐसा है, जैसे कोई आईने में दिख रही अपनी परछाई को बदलना चाहे, वैसे है.
अगर चेहरा नहीं बदलता है, तो आईने में दिखने वाली तस्वीर कैसे बदलेगी. इसलिए मन को काबू में करने की जगह इंसान को खुद को समझने की जरूरत है.
पहचान बदलने की ज़रूरत
आचार्य प्रशांत के अनुसार मन हमारे 'मैं' के इर्द-गिर्द होने वाली गतिविधि है. इंसान अपने बारे में जैसा सोचता है, मन उसी सोच के अनुसार विचार, भावनाएं और प्रतिक्रियाएं पैदा करता है.
वे बताते हैं कि अगर कोई व्यक्ति खुद को कमजोर, असुरक्षित और अधूरा मानता है, तो उसका मन डर, चिंता और बेचैनी से भरा रहेगा. इस बात को समझाने के लिए वे एक उदाहरण देते हैं. मान लीजिए कोई व्यक्ति कीचड़ में खड़ा है और बदबू से परेशान होकर पूछ रहा है कि बदबू को कैसे काबू में किया जाए.
आचार्य कहते हैं कि बदबू को काबू में करने का सवाल ही गलत है. समाधान यह है कि उस जगह से बाहर निकलो. जब तक इंसान गलत जगह खड़ा रहेगा, तब तक परेशानी बनी रहेगी.
खुद बदलिए, मन अपने आप बदलेगा
आचार्य प्रशांत बताते हैं कि मन का सारा उपद्रव उस पहचान का नतीजा है, जो हमने अपने लिए बना ली है. वे कहते हैं कि अध्यात्म हमें दो ही रास्ते दिखाता है या तो अपने आप को पूरा जानो, या फिर उस झूठे अधूरे “मैं” को मिटा दो. अधूरे “मैं” को वे अहंकार कहते हैं और पूरे “मैं” को आत्मा.
जब इंसान भीतर से खुद को पूरा मानकर जीता है, तो मन ज्यादा खराब नहीं होता. बाहर की परिस्थितियां मन को थोड़ा प्रभावित कर सकती हैं, लेकिन अंदर की शांति बनी रहती है. ऐसे में इंसान यह नहीं पूछता कि मन को काबू में कैसे रखें, बल्कि सहज और संतुलित जीवन जीने लगता है.
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