Antim Sanskar: महादेव की काशी नगरी को मोक्षदायिनी नगरी कहा जाता है. यहां स्थित मणिकर्णिका घाट सदियों से जीवन और मृत्यु का संगम रहा है. अंतिम संस्कार की अग्नि से निरंतर धधकती मणिकर्णिका घाट में दाह संस्कार को लेकर कुछ ऐसी परंपरा है, जोकि इन दिनों सोशल मीडिया पर काफी चर्चा में है.

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मणिकर्णिका घाट को मौत का मोक्ष द्वार माना जाता है. यहां ऐसी परंपरा है कि, दाह संस्कार के बाद चिता की राख में ‘94’ अंक लिखा जाता है. यह परंपरा आज भी लोगों के लिए रहस्य बना हुआ है. आइए आपको बताते हैं इस रहस्य से जुड़ी गहरी आस्था और पौराणिक विश्वास के बारे में.

ऐसा कहा जाता है कि मणिकर्णिका घाट में जब किसी मृतक का दाह संस्कार किया जाता है और दाह संस्कार पूरा होने के बाद जब चिता ठंडी हो जाती है तो मुखाग्नि देने वाला व्यक्ति या फिर श्मशान कर्मी कोई भी व्यक्ति किसी लकड़ी या ऊंगली की सहायता से चिता की राख पर 94 अंक लिखता है. इसके बाद चिता का राख (अस्थि) गंगा विसर्जन के लिए तैयार होती है. वैसे तो यह परंपरा वाराणसी या मणिकर्णिमा घाट के आसपास रहने वाले स्थानीय लोगों के लिए आम है, लेकिन बाहरी और दूरदराज लोगों के लिए यह परंपरा रहस्य का विषय है, जिसे जानने के लिए वे उत्सुक रहते हैं.

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क्या है 94 अंक का मतलब?

स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, मनुष्य के 100 कर्म होते हैं, जिनमें से 94 कर्म उसके अपने होते हैं. यानी वे कर्म जिन्हें वह अपने विचार, इच्छा और कर्म से नियंत्रित कर सकता है. जबकि बाकी 6 कर्म जैसे- जीवन, मृत्यु, यश-अपयश, लाभ-हानि मनुष्य के हाथ में नहीं बल्कि ईश्वर या नियति के अधीन मानी जाती है.

दाह संस्कार के बाद चिता की राख में 94 लिखने का अर्थ यह है कि, चिता की अग्नि में मृतक के नियंत्रित 94 कर्मों को जलाकर भस्म कर दिया गया. इस परंपरा को मोक्ष की ओर एक प्रतिकात्मक यात्रा का संकेत माना जाता है. इस परंपरा को निभाने का अर्थ यह है कि, राख पर 94 लिखकर मृतक अब सांसारिक बंधनों से मुक्त हो गया और अन्य 6 कर्म ईश्वर की इच्छा पर छोड़ दिए गए हैं. इसी भाव के साथ ही आज भी यह परंपरा निभाई जाती है.

राख में 94 लिखने का शास्त्रीय प्रमाण

शास्त्रों में कर्म, मोक्ष, पुनर्जन्म के चक्र आदि वर्णन जरूर किया गया है. लेकिन काशी के मणिकर्णिका घाट पर चिता की राख में 94 अंक लिखने की यह स्थानीय परंपरा का प्रमाण हिंदू शास्त्र या ग्रंथ में नहीं मिलता है. इसलिए सीधे तौर पर इसका शास्त्रीय आधार नहीं है. बल्कि यह परंपरा स्थानीय लोगों और विद्वानों द्वारा हिंदू कर्म सिद्धांत पर आधारित है.

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