India Responded On Sri Lanka Crisis: जैसे ही श्रीलंका संकट कोलंबो (Colombo) में राष्ट्रपति भवन तक पहुंचा, इसकी गूंज दूर-दूर तक महसूस की जा रही थी. खासकर पाल्क-जलडमरूमध्य (Palk-Strait) के प्रायद्वीप में जब 'आर्थिक शरणार्थियों' का पहला जत्था तमिलनाडु पोर्ट पर पहुंचा था. तभी अंदाजा लग गया था कि श्रीलंका में आर्थिक संकट से हालात किस कदर बिगड़े हुए हैं. 40 साल पहले इसी तरह जाफना (Jaffna) की तमिल आबादी भी वहां के भयंकर सिंहल राष्ट्रवाद (Sinhala Nationalism) से डर कर भारत में शरण लेने पहुंची थी. तो इस बार उन्हें भयंकर आर्थिक परेशानियों (Economic Hardship) ने अपना वतन छोड़ने पर मजबूर किया है. ऐसे में भारत पड़ोसी देश की मदद के लिए सामने आया है और भू राजनैतिक (Geopolitical) नजरिए से देखा जाए तो वैश्विक राजनीति में भारत का यह कदम बेहद अहम माना जा रहा है. 


भारत नहीं रह सकता श्रीलंका के हालातों से अछूता


श्रीलंका के शरणार्थियों के पहले जत्थे का उतरना भारत को यह याद दिलाने के लिए काफी था कि वह पड़ोसी द्वीप राष्ट्र में पैदा हुए आंतरिक हालातों से पूरी तरह से अछूता नहीं रह सकता है. ऐसे ही हालात 80 के दशक में बहुसंख्यक सिंहली आबादी और तमिल अल्पसंख्यकों के बीच हुए जातीय युद्ध के दौरान पैदा हुए थे.श्रीलंका की घरेलू राजनीति की इस उथल-पुथल से केवल समुद्री सीमा से अलग इन दो दक्षिण-एशियाई (South-Asian) पड़ोसियों का एक-दूसरे से अछूता रहना संभव नहीं है. यही वजह है कि श्रीलंका के आर्थिक संकट पर भारत का रुख अति सतर्कता भरा रहा है. भारत ने मदद के लिए हाथ बढ़ाते हुए श्रीलंका के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने की कोशिश की किसी भी धारणा को पूरी तरह से नकारने की कोशिश की है.


श्रीलंका की मौजूद आर्थिक मंदी भारत को न केवल वहां के शासन और प्रभावशाली लोगों तक बल्कि बड़े स्तर पर श्रीलंकाई जनता तक पहुंचने का मौका देती है.यही वजह है कि भारत अपने इस पड़ोसी देश के बचाव में उतर आया है. इसके तहत भारत ने श्रीलंका को ईंधन आयात के लिए कर्ज देने की पेशकश के साथ ही जरूरी चीजों की खरीद के लिए एक अरब अमरीकी डॉलर से अधिक की मदद की पेशकश की है.


श्रीलंका को वित्तीय सहायता देने और कर्ज की शर्तों में बदलाव के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monitary Fund) और विश्व बैंक (World Bank) की बातचीत आखिरी चरण में हैं. इसी बीच भारत ने अपनी पड़ोसी पहले की नीति के तौर पर श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को बनाए रखने की कोशिशों को तेज कर दिया है. चीन की तरह श्रीलंका के साथ भारत के संबंध केवल आर्थिक और भू-राजनीतिक (Geopolitical) मजबूरियों के मोहताज नहीं है. दोनों देशों के बीच बहुत पुराने और गहरे सामाजिक और सांस्कृतिक रिश्ते रहे हैं, हालांकि बीते दो दशकों में श्रीलंका में कूटनीतिक और आर्थिक लेन-देन में चीन का प्रभाव लगातार बढ़ता जा रहा है.


चीन का बढ़ता असर


साल 2020 में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक दक्षिण-एशिया (South-Asia) में बढ़ते चीनी प्रभाव को लेकर अंतरराष्ट्रीय थिंक टैंक ने कार्नेगी सेंटर (Carnegie Centre) में गंभीर विचार विमर्श किया था. इस दौरान एक बात सामने आई थी कि चीन ने अपने व्यक्तिगत संबंधों को इस इलाके के कुछ अहम देशों के साथ आगे बढ़ाया. तब थिंक टैंक ने इसे बीजिंग (Beijing) के इस इलाके में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली कई चालों में से एक चाल कहा था.


खासकर श्रीलंका के मामले में कुछ ऐसा ही था. इस द्वीपीय देश में चीन लगभग दो दशकों से सक्रिय है. लगभग दो दशक पहले महिंदा राजपक्षे (Mahinda Rajapakse) परिवार के उदय के साथ ही पाल्क-जलडमरूमध्य (Palk-Strait) में भारत के दक्षिणी पड़ोसी देश के फायदे के निवेश ने गति पकड़ी थी. सिंहली (Sinhala) राष्ट्रवाद पर सवार होकर, राजपक्षे ने सत्ता संभाली और श्रीलंका के उत्तरी और पूर्वी जिलों में तमिल विद्रोह को खत्म करने के लिए एक बेहतरीन कोशिश की.


ऐसे में लिट्टे के खिलाफ इस युद्ध में श्रीलंकाई सेना को हथियारों और गोला-बारूद की लगातार आपूर्ति कर चीन इसका एक अहम भागीदार बन गया. कूटनीतिक तौर पर भी चीन ने लिट्टे के खात्मे के दौरान नागरिक आबादी को हुए भारी नुकसान से जुड़े किसी भी मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाने की कोशिश को नाकाम करने में भी श्रीलंका की मदद की थी. इस वजह से चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने श्रीलंका के साथ व्यक्तिगत और कूटनीतिक दोनों रिश्ते मजबत किए.


श्रीलंका ने चीन के इस इस उपकार के बदले अपने बंदरगाहों और हवाई अड्डों जैसे वैनिटी प्रोजेक्ट के रास्ते चीनी निवेशकों के लिए खोल दिए. हालांकि चीन का ये निवेश प्राइस टैग के साथ आया था.जिसका नतीजा श्रीलंका को आर्थिक संकट का सामना कर भुगतना पड़ रहा है. साल 2020 तक श्रीलंका तेजी से लोन ट्रैप में फंसता चला गया. चीन का कर्ज श्रीलंका के सकल घरेलू उत्पाद के छह फीसदी तक बढ़ आया. बीते 7 साल में श्रीलंका के कुल कर्ज में चीन के कर्ज का प्रतिशत लगातार बढ़ता रहा है. जबकि इसके उलट श्रीलंका पर भारत का कर्ज कम होता चला गया. 


इसके साथ ही श्रीलंका में चीन के बढ़ते असर का नतीजा तेजी से सामने आने लगा था. साल 2017 में  श्रीलंका को अपने गहरे पानी के हंबनटोटा (Hambantota) बंदरगाह को 99 साल के पट्टे (Lease) पर चीन को देने के लिए मजबूर होना पड़ा. इस बंदरगाह के मिलने से भारत के उत्तरी पड़ोसी देश चीन को पाल्क-जलडमरूमध्य ( Palk-Strait) में पैर जमाने में रणनीतिक तौर पर बड़ी मदद मिली है. गौरतलब है कि बीजिंग के बेल्ट (Belt) और रोड इनिशिएटिव (Road Initiative) के तहत मैरीटाइम सिल्क रोड (Maritime Silk Road) बनाने की चीन की योजनाओं में श्रीलंका पिछले कुछ वर्षों में एक अहम खिलाड़ी के तौर पर उभरा है.


जब साल 2015 में महिंदा राजपक्षे (Mahinda Rajapakse) को दोस्त से दुश्मन बने एम सिरिसेना (M Sirisena) के हाथों अचानक और आश्चर्यजनक हार का सामना करना पड़ा. इस तरह के घटनाक्रम ने भारत को अपनी कोशिशों को आगे बढ़ाने का मौका दिया. हालांकि पांच साल बाद ही सत्ता से बेदखल हुआ राजपक्षे परिवार बड़े बहुमत के साथ सत्ता में लौट आया और बीते महीने तक शीर्ष पर बना रहा.


जब-तक की विदेशी मुद्रा के बकाया भुगतान में नाकाम रहने पर देश में आर्थिक संकट से उपजे विद्रोह में जनता ने उसे श्रीलंका से बाहर नहीं  खदेड़ दिया. और भारत ने श्रीलंका की इस संकट की घड़ी में उसका साथ देकर सार्क (SAARC) के सदस्यों को एक अहम संदेश दिया है. खासकर नेपाल ( Nepal), मालद्वीव ( Maldives) और बाग्लांदेश (Bangladesh) को जहां बीते दो दशकों में चीन का प्रभाव लगातार बढ़ता जा रहा है. 


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