भारत और कनाडा के बीच विवाद गहराता जा रहा है. खालिस्तान के मसले को लेकर दोनों देशों के रिश्तों में तल्खी बढ़ती जा रही है. फिलहाल, नयी दिल्ली ने कनाडा सरकार को हिदायत दी है कि अपने 40 राजनयिकों को वापस बुला लें. अगर 10 अक्टूबर तक इन्हें वापस नहीं बुलाया जाता है तो उनकी डिप्लोमैटिक इम्युनिटी को वापस ले लिया जाएगा. फिलहाल, भारत में कनाडा के 62 डिप्लोमैट हैं, उसे घटाकर भारत दर्जन भर तक करना चाहता है. दरअसल, पूरा विवाद तब शुरू हुआ था, जब कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने वहां की संसद में एक बेतुका और बचकाना बयान दे दिया था. उन्होंने भारत की सुरक्षा एजेंसियों पर खालिस्तानी आतंकी निज्जर की हत्या में शामिल होने का आरोप लगाया था. भारत ने इसका कड़ा प्रतिवाद करते हुए कनाडा को सख्त चेतावनी दी थी. हालांकि, कनाडा ने उसके तुरंत बाद भारतीय राजनयिक को बाहर निकाल दिया था. इसके बाद भारत ने पलटवार करते हुए कनाडाई राजनयिक को तो 5 दिनों के अंदर देश छोड़ने को कहा ही, कनाडाई नागरिकों के लिए वीजा पर भी रोक लगा दी थी.
भारत और कनाडा कभी थे दोस्त
आज जो भारत और कनाडा की हालत है, उसे देखकर यह यकीन नहीं होता कि कभी दोनों ही देश साझा आदर्शवाद की बात करते थे. अफसोस कि वह दौर रहा नहीं और धीरे-धीरे कनाडा इतना दूर हो चला है कि आज वह खालिस्तान मूवमेंट के पीछे की राजनीति को समझने तक को तैयार नहीं है औऱ यही बात दोनों देशों के आड़े आ रही है. पिछले दिनों विदेश मंत्री जयशंकर ने अमेरिका में भी इस संदर्भ में खरी-खरी सुनाई है. उन्होंने कहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर आतंकवाद को प्रश्रय देने को जायज नहीं ठहराया जा सकता है. उन्होंने बार-बार कनाडा की वोट बैंक की राजनीति का भी संदर्भ दिया, जो खास तौर से जस्टिन ट्रूडो के समय. और विकट हो गयी है. इसका कारण यह है कि ट्रूडो की सरकार अल्पमत की है और वह सिखों के बहुमत वाले 12 सीटों के लिए तमाम बातों से आंखें मूंद ले रहे हैं. उनको यह समझना चाहिए कि हरेक सिख खालिस्तान को सपोर्ट नहीं करता, वरन गिने-चुने लोग ही हैं, जो खालिस्तान समर्थक हैं. हालांकि, उनकी ये अजूबा नीति ही है कि भारत की चिंता पर कनाडा सुन तक नहीं रहा है, एक्शन लेने की बात तो दूर है.
संयुक्त राष्ट्र महासभा बैठक को संबोधित करने गए विदेश मंत्री ने कनाडा को यही बात समझाने की कोशिश की है. भारत मेंअमेरिकी राजदूत रहे केनेथ जस्टर के संचालन में आयोजित कार्यक्रम में एस.जयशंकर ने वैश्विक जगत को कनाडा के आरोपों के बाबत आंखों में आंखें डालकर बताया. उन्होंने साफ किया कि ऐसा काम करना भारत की नीति नहीं है, लेकिन कनाडा अलगाववादियों के लिये उर्वरा भूमि बना हुआ है. उन्होंने जस्टिन ट्रूडो के मंसूबों को बेनकाब करते हुए कहा कि कनाडा में पृथकतावादी तत्वों से जुड़े संगठित अपराधों के तमाम मामले प्रकाश में आए हैं, जिन पर कई बार कार्रवाई के बाबत कनाडा सरकार को कहा गया है. विदेशमंत्री ने तो वहां पश्चिमी देशों पर प्रहार करते हुए यह भी पूछ लिया कि अगर उनके दूतावासों-राजनयिकों पर स्मोक बम फेंके जाते, धमकियां दी जातीं, तो वे क्या करते?
पवित्रतम होने की धुन है समस्या
कनाडा की समस्या यह है कि वह रियालपॉलिटिक को समझने की जगह आदर्श की उस जगह को पहुंचने की कोशिश करता है, जहां पहुंचना मुमकिन ही नहीं है. मौजूदा कनाडाई प्रधानमंत्री ट्रूडो के पिता पियरे ट्रूडो के साथ तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को भी यह समस्या आयी थी, जब वह घर में राजनीतिक उथल-पुथल झेल रहे थे और उस वक्त बाहर की चुनौतियां भी उतनी ही थीं. तब पियरे ने अपने तथाकथित 'उदारवादी' रवैए से निक्सन को इतना झेला दिया कि निक्सन ने उनको कई तरह की गालियां तक बक दी थीं. जस्टिन ट्रूडो भी उसी समस्या से जूझ रहे हैं, जिससे उनके पिता ग्रस्त थे. वह नहीं समझ पा रहे हैं कि आदर्शवाद और उदारवाद की बातें ठीक हैं, लेकिन उसके नाम पर आतंकवाद को किसी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता. किसी संप्रभु देश पर कोई भी आरोप प्रधानमंत्री के स्तर का आदमी नहीं लगा सकता. ट्रूडो ने अपने बेतुके बयान और व्यवहार से कनाडा को पूरी दुनिया में हास्य का पात्र बना दिया है.
कनाडा के पास आदर्शवादी होने की लक्जरी है, क्योंकि उसके पास फाइव आइज हैं, अमेरिका का साथ है और जिम्मेदारी कोई नहीं है. इसीलिए, वह अमेरिका के चीन को मान्यता देने से लगभग एक दशक पहले ही चीन के साथ गलबंहियां कर रहा था, इसीलिए पियरे ट्रूडो पूरी ठसक के साथ अमेरिका के चिर शत्रु (क्यूबा) की यात्रा पर भी जाते हैं और फिदेल कास्रो से मिलकर भी आते हैं. तब अमेरिका और क्यूबा के बीच तनाव चरम पर था. अमेरिका को पूरी दुनिया की रणनीतिक फिक्र भी करनी थी, इसलिए वह कई ऐसे काम करता है, जो नैतिक न दिखें, पर शायद यह उसकी मजबूरी हो. भारत भी आजादी के तुरंत बाद अगले दो दशकों तक उसी हालत में था, आदर्शवादी था. चीन ने जब 1962 में भारत की पीठ में छुरा घोंपा तो भारत को रियालपॉलिटिक समझ में आयी. अब का भारत वैश्विक रंगमंच का केवल दर्शक नहीं, उसका भागीदार है, इसलिए कनाडा के साथ का वह दौर खत्म हो चला है. अब, भारत कठोर राजनय की भाषा बोल रहा है और कनाडा उसे जितनी जल्दी समझ ले, उतना ही बेहतर है.