हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट में एक मामला गरमाया हुआ है, जिसका नाम है करेवा विवाह. दिल्ली हाई कोर्ट ने करेवा विवाह से पैदा हुए बच्चों के कानूनी अधिकारों की जांच करने का फैसला किया है. कोर्ट इस सवाल पर गौर फरमा रहा है कि क्या इन बच्चों को वही अधिकार मिलने चाहिए, जो कि अन्य वैध विवाह से पैदा हुए बच्चों को मिलते हैं. लेकिन करेवा विवाह आखिर होता क्या है, जिसको लेकर दिल्ली हाईकोर्ट में यह मामला पहुंचा है. यह मुख्य रूप से किन राज्यों में देखने को मिलता है और इसका क्या मकसद होता है. आज इस आर्टिकल में हम आपको इन सारे सवालों के जवाब देने जा रहे हैं. 

क्या है करेवा विवाह

उत्तर भारत में खासतौर से हरियाणा और पंजाब में एक परंपरा ऐसी है जो कि आज भी कई समुदाय में देखने को मिलती है, यह परंपरा है करेवा विवाह. खासतौर से यादव समुदाय में यह परंपरा देखने को मिलती है. यह विषय उत्ततर भारत में आज भी चर्चा का विषय है. यह वो प्रथा है जिसमें एक व्यक्ति अपने बड़े भाई की विधवा पत्नी से शादी करता है. यह परंपरा राजस्थान और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में भी देखने को मिलती है. इसका मकसद परिवार को एकजुट रखना, परिवार की संपत्ति को बिखरने से बचाना और विधवा को आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा देना होता है. 

आखिर क्यों अलग है करेवा विवाह

भारत में लव मैरिज, अरेंज्ड मैरिज और कोर्ट मैरिज की तरह करेवा विवाह भी प्रचलन का हिस्सा है. लेकिन यह इन सबसे अलग होता है. इसमें दूल्हा और दुल्हन अलग-अलग परिवारों से नहीं बल्कि एक ही परिवार का हिस्सा होते हैं.  दरअसल पुराने समय में विधवाओं को समाज के ताने और उलाहने सहने पड़ते थे. ऐसे में करेवा विवाह न सिर्फ उनको सुरक्षा देता था, बल्कि समाज में सम्मान भी दिलाता था. ऐसी शादी का एक बड़ा मकसद परिवार की संपत्ति को एकजुट रखना होता है. दूसरी शादी में जैसे जमीन और संपत्ति में परिवार में बंटवारे का डर होता है, वहीं करेवा विवाह में जमीन और घर परिवार में ही रहते हैं. कुछ समुदाय के लोग इसे अपने परिवार का गौरव मानते हैं, वहीं कई बार यह शादी विधवा की मर्जी के बगैर होती है, इससे महिलाओं की स्वतंत्रता पर भी सवाल उठता है. 

हिंदू विवाह अधिनियम में करेवा को लेकर कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं

इस शादी की खासियत है कि यह न तो पूरी तरह से सामान्य विवाह की तरह है और न ही आधुनिक विवाह में गिना जाता है. यह सिर्फ समाज की कुछ मान्यताओं पर टिका हुआ है, लेकिन इसमें बच्चों के अधिकार को लेकर कानूनी दिक्कतें होती हैं. हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में इसका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है, लेकिन पंजाब और हरियाणा के कई मामलों में विवाह की इस प्रथा को मान्यता दी है.

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