Worlds First Iron Cased Rocket: आधुनिक युद्ध की मिसाइल और रॉकेट की तरफ रुख करने से बहुत पहले एक भारतीय शासक ने अपने समय से कहीं आगे की तकनीक के साथ युद्ध क्षेत्र में क्रांति ला दी थी. 18 वीं सदी के मैसूर के शासक टीपू सुल्तान और उनके पिता हैदर अली ने दुनिया के पहले लोहे के आवरण वाले रॉकेट का निर्माण किया था. यह एक ऐसा आविष्कार था जिसने अंग्रेजो को चौंका दिया था. इन रॉकेट को मैसूरी रॉकेट के नाम से पहचान गया.

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मैसूरी रॉकेट का जन्म 

18वीं सदी के अंत में टीपू सुल्तान के नेतृत्व में मैसूर तकनीकी नवाचार में काफी आगे था. उनके रॉकेट में यूरोप में इस्तेमाल होने वाले पारंपरिक कार्डबोर्ड की जगह लोहे के आवरण का इस्तेमाल किया गया था. इस लोहे के आवरण की मदद से वह उच्च दबाव को झेल सकते थे और 2 किलोमीटर तक की यात्रा कर सकते थे.  यह रॉकेट लंबे बांस के डंडों से जुड़े होते थे, जिससे उनकी उड़ान स्थिर रहती थी.

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आंग्ल मैसूर युद्ध में हुआ इस्तेमाल 

टीपू सुल्तान और हैदर अली ने आंग्ल मैसूर युद्ध में ब्रिटिश सेना के खिलाफ इन रॉकेट का इस्तेमाल किया. 1780 में पोलिलुर के युद्ध में भी इन रॉकेट का बड़ा इस्तेमाल हुआ. इन रॉकेट ने ब्रिटिश सेना को भारी क्षति पहुंचाई, जिस वजह से सेना को अफरा तफरी का सामना करना पड़ा. अंग्रेजों ने पहले कभी इस तरह के हथियार का सामना नहीं किया था तो उनके लिए यह बस आकाश से बरसते हुए लोहे जैसे थे. 

रॉकेट के पीछे की तकनीक 

लोहे के आवरण की मजबूती रॉकेट की शक्ति के लिए काफी ज्यादा जरूरी थी. इससे रॉकेट के अंदर ज्यादा बारूद भरा जा सकता था ताकि उचित थ्रस्ट और ज्यादा दूरी प्राप्त हो. इसमें लगी बांस की छड़ें पतवार जैसे काम करती थी, जिससे रॉकेट हवा में स्थिर रहता था. 

इनका इस्तेमाल किसके खिलाफ किया गया 

इन रॉकेट का इस्तेमाल ज्यादातर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ किया गया था. इसी के साथ टीपू सुल्तान ने मराठों और हैदराबाद के निजाम जैसे क्षेत्रीय प्रतिद्वंदियों के खिलाफ भी इनका इस्तेमाल किया था. यह लोग अंग्रेजों के साथ गठबंधन करते थे. चौथ आंग्ल मैसूर युद्ध के दौरान टीपू सुल्तान ने अपनी राजधानी श्रीरंगपट्टनम की रक्षा के लिए इन रॉकेट का इस्तेमाल किया.

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