भारत के इतिहास में शाही ठाठ-बाट की कहानियां कम नहीं हैं, लेकिन एक नवाब की कहानी ऐसी है जिसने विलासिता की परिभाषा ही बदल दी. ये कहानी है रामपुर के नवाब हमीद अली खान की, जिनके लिए ट्रेन सिर्फ सफर का जरिया नहीं थी, बल्कि शाही शान का प्रतीक थी. जब बाकी लोग रेलवे स्टेशन पर ट्रेन का इंतजार करते थे, तब इस नवाब ने फैसला किया कि ट्रेन अब उसके दरवाजे तक आएगी और फिर जो हुआ, वो इतिहास बन गया.
ट्रेन नहीं, नवाब की शान थी वह रेलगाड़ी
साल 1925 का दौर था. ब्रिटिश राज के समय जब आम लोग थर्ड क्लास में यात्रा करते थे, तब नवाब हमीद अली खान ने बड़ौदा स्टेट रेल बिल्डर्स को आदेश दिया कि उनके लिए एक खास शाही ट्रेन बनाई जाए. चार डिब्बों की यह ट्रेन द सैलून नाम से मशहूर हुई. इसके हर डिब्बे में ऐसी भव्यता थी कि कोई भी इसे चलता-फिरता महल कह सकता था. फारसी कालीन, झूमर, नक्काशीदार सागवान की फर्नीचर और सुनहरे परदे, हर कोना रॉयल एहसास से भरा था.
नवाब के लिए अलग बेडरूम, डाइनिंग रूम, किचन और यहां तक कि मनोरंजन कक्ष भी था. सुरक्षा कर्मियों और नौकरों के लिए भी अलग डिब्बे बनाए गए थे. इस ट्रेन की चमक इतनी थी कि उसका हर आगमन किसी राजा के दरबार जैसा लगता था.
महल तक रेल की पटरियां
नवाब ने जब तय किया कि ट्रेन महल तक आनी चाहिए, तो इसके लिए रामपुर से लेकर मिलक तक करीब 40 किलोमीटर लंबी निजी रेल लाइन बिछाई गई. इस लाइन के अंत में बना निजी रेलवे स्टेशन आज भी शाही इंजीनियरिंग की मिसाल माना जाता है. बताया जाता है कि इस स्टेशन की मौजूदा कीमत करीब 113 करोड़ रुपये आंकी गई है.
यह स्टेशन सिर्फ सफर का ठिकाना नहीं था, यह नवाब के गौरव और ऐश्वर्य की निशानी थी. प्लेटफॉर्म पर संगमरमर की फर्श, दीवारों पर जालीदार नक्काशी, लोहे के खंभों पर खुदे शाही निशान, हर ईंट में एक राजसी कहानी छिपी थी. जब नवाब की ट्रेन स्टेशन पर रुकती, तो तुरही बजती, कालीन बिछाए जाते और दरबारियों की कतार नवाब के स्वागत में खड़ी होती थी.
बंटवारे के दौर में नवाबी करुणा
1947 के बंटवारे के वक्त, जब लोग अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे, तब इस नवाब ने अपनी निजी ट्रेन का इस्तेमाल मानवीय मिशन के लिए किया. उन्होंने अपने ट्रेन के डिब्बों में कई परिवारों को सुरक्षित पाकिस्तान पहुंचाया. यही नहीं, बाद में उन्होंने अपनी चार डिब्बों वाली ट्रेन में से दो डिब्बे भारत सरकार को दान में दे दिए. भारतीय रेल ने इन डिब्बों का इस्तेमाल 1966 तक किया, इसी साल नवाब हमीद अली खान का निधन भी हुआ था.
अब नहीं गूंजती ट्रेन की सीटी
नवाब के जाने के बाद उनके उत्तराधिकारी रजा अली खान ने शाही परंपरा को बरकरार रखने की कोशिश की, मगर वह चमक वैसी नहीं रही. धीरे-धीरे स्टेशन वीरान हो गया, पटरियों पर जंग लग गई और ट्रेन की सीटी एक बीते दौर की गूंज बनकर रह गई. आज रामपुर पैलेस अपनी भव्यता के लिए तो मशहूर है ही, साथ ही यहां मौजूद लाइब्रेरी भारत की सबसे कीमती निजी लाइब्रेरी मानी जाती है, जिसमें 17,000 से अधिक दुर्लभ पांडुलिपियां रखी हैं.
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