बीस साल की खामोशी के बाद अचानक उठे कदम ने परिवार में भूचाल ला दिया, जब एक शादीशुदा बेटी ने अपने पिता की पैतृक संपत्ति में दावा किया. उस दौरान एक सवाल हर जुबां पर गूंजा कि क्या इतनी देर के बाद भी बेटी का पिता की संपत्ति पर हक बनता है? कानूनी दांव-पेंच, वसीयत की चुप्पी और पैतृक संपत्ति का इतिहास इस मामले को साधारण नहीं बल्कि सस्पेंस से भरपूर बना देता है. तब यह लड़ाई सिर्फ जमीन की नहीं, बल्कि अधिकार की कहानी बन जाती है. आइए इसके लिए क्या नियम है जान लेते हैं. 

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पैतृक संपत्ति में बेटी का अधिकार

पैतृक संपत्ति, जो पीढ़ियों से चली आ रही होती है, उसमें बेटे और बेटियों दोनों का समान अधिकार होता है. 2005 के हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम ने इसे और स्पष्ट किया है. अब शादीशुदा बेटी भी अपने पिता की पैतृक संपत्ति में बेटे के बराबर सह-उत्तराधिकारी होती है, चाहे पिता की मृत्यु कितने साल पहले हुई हो, पैतृक संपत्ति में उसका जन्मसिद्ध हिस्सा हमेशा सुरक्षित रहता है.

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स्व-अर्जित संपत्ति की बात अलग होती है. यदि पिता ने स्वयं कमाई की संपत्ति थी और वह वसीयत के माध्यम से किसी और को दे दी थी, तो बेटी का उस संपत्ति पर दावा कानूनन नहीं बनता है. यानी यह दावा सिर्फ पैतृक संपत्ति पर लागू होता है. वहीं अगर वसीयत नहीं है, तो संपत्ति के बंटवारे में बेटे और बेटी दोनों को समान हिस्सा मिलता है.

बेटी का जन्मसिद्ध अधिकार कभी नहीं होता खत्म

यह मामला समाज में एक बड़ा संदेश छोड़ता है, जब अक्सर परिवार शादीशुदा बेटियों को उनकी पैतृक संपत्ति से अलग कर देता है, यह सोचते हुए कि अब वे पराए घर में चली गई हैं. लेकिन कानून ने साफ कर दिया है कि शादी या समय की लंबाई कभी भी बेटी के जन्मसिद्ध अधिकार को समाप्त नहीं कर सकती है.

कब लागू होती है समय सीमा

कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसे मामलों में समय सीमा केवल वसीयत के उल्लंघन या स्व-अर्जित संपत्ति में लागू होती है, पैतृक संपत्ति पर नहीं लागू होता है. इसलिए बेटी लंबे समय के बाद भी दावा कर सकती है. अदालतें अब इसे पहले की तरह नजरअंदाज नहीं कर सकतीं हैं. किसी बेटी के द्वारा बीस साल बाद उठाया गया यह कदम साबित करता है कि अधिकार चुपचाप समाप्त नहीं हो जाते. चाहे समाज कितनी भी धारणाएं बदल दे, कानून हमेशा बेटी के पक्ष में खड़ा रहता है.

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