बुधवार तड़के आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा में स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से इसरो ने अपने भारी प्रक्षेपण यान LVM3-M6 के जरिए अमेरिका के ब्लूबर्ड ब्लॉक-2 उपग्रह को सफलतापूर्वक अंतरिक्ष की ओर रवाना किया. करीब 6,100 किलोग्राम वजन वाला यह उपग्रह भारत की धरती से अब तक छोड़ा गया सबसे वजनी सैटेलाइट बन गया है. आइए इसी क्रम में यह जान लेते हैं कि आखिर इसरो किसी रॉकेट का नाम कैसे रखता है और इसकी जिम्मेदारी किसे दी जाती है.
कौन रखता है इसरो के रॉकेट के नाम
इसरो में किसी भी रॉकेट का नाम रखना केवल तकनीकी प्रक्रिया नहीं, बल्कि वैज्ञानिक सोच, परंपरा और संस्थागत निर्णय का मिला-जुला परिणाम होता है. रॉकेट के नामकरण की जिम्मेदारी किसी एक व्यक्ति के पास नहीं होती, बल्कि यह फैसला इसरो के टॉप लेवल पर सामूहिक रूप से लिया जाता है. इसमें मिशन से जुड़े वरिष्ठ वैज्ञानिक, प्रोजेक्ट डायरेक्टर, कार्यक्रम निदेशक और इसरो मुख्यालय की संबंधित समितियां शामिल होती हैं.
किन चीजों को ध्यान में रखा जाता है
आमतौर पर रॉकेट का नाम उसके उद्देश्य, क्षमता और तकनीकी वर्ग को ध्यान में रखकर तय किया जाता है. जैसे पीएसएलवी यानी पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल का नाम इसलिए रखा गया क्योंकि यह ध्रुवीय कक्षा में उपग्रह भेजने के लिए विकसित किया गया था. इसी तरह जीएसएलवी जियोसिंक्रोनस सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल है, जो भूस्थिर कक्षा के उपग्रहों के लिए इस्तेमाल होता है. एलवीएम यानी लॉन्च व्हीकल मार्क रॉकेट की पीढ़ी और ताकत को दर्शाता है, जिसमें एलवीएम3 सबसे भारी श्रेणी का रॉकेट है.
किस आधार पर चुनते हैं नाम
इसरो कई बार भारतीय संस्कृति और वैज्ञानिक विरासत से प्रेरणा लेकर भी नाम चुनता है. उदाहरण के तौर पर ‘अग्नि’, ‘आकाश’, ‘गगनयान’ जैसे नाम भारतीय भाषाओं और दर्शन से जुड़े हैं, जो शक्ति, आकाश और मानव अंतरिक्ष मिशन के भाव को दर्शाते हैं. नाम ऐसा रखा जाता है जो तकनीकी रूप से सटीक हो, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समझने योग्य हो और भारत की वैज्ञानिक पहचान को भी मजबूती दे.
कौन लगाता है अंतिम मुहर
अंतिम मुहर इसरो मुख्यालय और अंतरिक्ष विभाग की सहमति से लगती है, जिसके बाद वही नाम आधिकारिक दस्तावेजों, मिशन घोषणाओं और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस्तेमाल किया जाता है. इस तरह रॉकेट का नाम न सिर्फ उसकी पहचान बनता है, बल्कि भारत की अंतरिक्ष यात्रा की सोच और दिशा को भी दर्शाता है.
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