लोकसभा चुनाव बेहद नजदीक हैं. इस बीच देश की राजनीति में कोको द्वीप खासी चर्चाओं में बना हुआ है. बीजेपी उम्मीदवार बिष्णु पदा रे ने ये दावा किया है कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उत्तरी अंडमान द्वीप समूह का एक हिस्सा कोको द्वीप समूह म्यांमार को तोहफे में दिया था. ये द्वीप समूह कितना अहम है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आज चीन इसी द्वीप के जरिए भारत पर पैनी नजर बनाए हुए है. तो चलिए आज इस द्वीप का इतिहास और ये भारत से चीन के पास कैसे पहुंचा ये जानते हैं.

Continues below advertisement

ब्रिटिश से लेकर चीन तक करना चाहता था कोको द्वीप पर राजकोको द्वीप का रणनीतिक द्वीप भी कहा जा सकता है. जो कोलकाता से 1255 किलोमीटर की दूसरी पर दक्षिण-पूर्व में स्थित है. भौगोलिक रूप से ये द्वीप अराकन पर्वत या राखीन पर्वत का एक विस्तारित विभाजन है. 

जो अंडमान निकोबार की तरह ही भारत की समुद्री सुरक्षा के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. जब भारत से अंग्रेज जा रहे थे उस समय देश के सामने ऐसे कई मुद्दे थे जिन्हें लेकर कुछ भी स्पष्ट नहीं था. इन द्वीप समूहों पर अंग्रेजी सरकार अपनी हुकूमत चाहती थी तो वहीं पाकिस्तान और चीन भी इनपर पैनी नजर गढ़ाए बैठा था. लक्षद्वीप पर पाकिस्तान कब्जा करना चाहता था, हालांकि सरदार पटेल की समझदारी और कुशल नेतृत्व ने ऐसा नहीं होने दिया. 

Continues below advertisement

चीन को कैसे मिला कोको द्वीप?पाकिस्तान लक्षद्वीप पर अपना कब्जा जमाना चाहता था. ऐसे में सरदार पटेल ने पाकिस्तान की सेना पहुंचने से पहले ही लक्षद्वीप पर भारतीय नौसेना तैनात कर दी. इस तरह लक्षद्वीप पर ब्रिटिश सरकार का कब्जा करने का सपना कभी सच नहीं हो पाया.

इसके बाद लॉर्ड माउंटबेटन ने भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के सामने कोको द्वीप को लेकर त्रिपक्षीय समझौते का प्रस्ताव रखा. इसके बाद साल 1950 में नेहरू ने कोको द्वीप समूह बर्मा (म्यांमार) को उपहार में दे दिया. कुछ समय बाद बर्मा ने यही कोको द्वीप चीन को उपहार में दे दिया. तभी से इस द्वीप पर चीन अपना अधिकार दिखाने लगा.

यह भी पढ़ें: अब चर्चा में है हलाल डेटिंग? जानिए इसमें किस तरह के लोग रखते हैं आपस में रिलेशनशिप?