मकर संक्रांति का दिन धार्मिक महत्व के साथ पतंगबाजों के लिए भी खास होता है. खासकर इस दिन आसमानों में रंग-बिरंगे पतंग दिखते हैं. लेकिन पतंग और मांझा की कहानी बरेली के बिना अधूरी है. पूरे देश में बरेली के मांझे की खूब डिमांड रहती है. आज हम आपको बरेली के मांझे की कहानी बताएंगे. 


नवाबों की मांग पर वजूद में आया मांझा


बरेली के हबीब मियां अपने समय में मांझा बनाने के बड़े उस्तादों में शुमार थे, लेकिन अब बूढ़ें हो चुके हैं. बरेली में मांझे का कैसे शुरू हुआ, इस सवाल पर हबीब मियां एक मीडिया संस्थान से बातचीत बताते हैं कि इसका कोई ठीक-ठीक हिसाब नहीं है. उन्होंने कहा कि यह काम नवाबों के दौर से शुरू हुआ था. क्योंकि लखनऊ-बरेली के शाही खानदान से जुड़े लोग पतंगबाजी के शौकीन हुआ करते थे, उस समय पतंग सूती धागे से ही उड़ाई जाती थी. लेकिन फिर धीरे-धीरे पतंगबाजों ने पेंच लड़ाना और एक दूसरे की पतंग काटना शुरू किया. जिसके बाद फिर पतंग काटने की बाजी लगने लगी थी. उन्होंने कहा कि सूती धागे से पतंग कटती नहीं थी, पतंग को काटने के लिए धार वाला धागा चाहिए था. इसके बाद कोशिश करते-करते एक कांच लगा हुआ ऐसा धागा बना, जिसे बाद में मांझा कहा गया. 


पतंग उड़ने के साथ कारोबार बढ़ा 


लखनऊ-बरेली और आसपास पतंग उड़ाने का शौक खूब था. जिस कारण धीरे-धीरे धागे का काम शुरू हो गया था, इसके बाद फिर यहां मांझे का काम भी शुरू हो गया. जानकारी के मुताबिक सबसे पहले बरेली में अली मोहम्मद ने मांझा बनाने का तरीका सीखा था. इसके बाद बरेली में मांझा बनाने की कारीगीरी उन्हीं से फैली थी. बता दें कि नवाबों के दौर में कुछ मुस्लिम परिवार इस काम को करते थे.


बाजार तक पतंक की डोर


एक समय के बाद पतंगबाजी नवाबों और शाही खानदानों से बाहर निकलकर आम लोगों का भी शौक बन गया था. इसके बाद धीरे-धीरे बाजार में फिर मांझा-पतंग की मांग भी बढ़ गई. बता दें कि मौजूदा दौर में बरेली के बाकरगंज, सराय खाम में यह काम सबसे ज्यादा होता है, इनके बनाए मांझे की उत्तर भारत के अलावा पतंगबाजी के लिए मशहूर गुजरात, राजस्थान में भी खूब बिकते हैं. जानकारी के मुताबिक बरेली शहर में आज करीब 25 हजार मुस्लिम परिवार मांझे के काम से जुड़े हैं.


कैसे बनता है मांझा


बरेली के एक कारीगर ने बताया कि सबसे पहले बांस के दो सिरे बनाकर उनके बीच धागे खींच जाते हैं. इसके बाद धागे पर एक खास तरह का लेप चढ़ाया जाता है. ये जो लेप होता है, ये बहुत खास होता है. क्योंकि इस बनाने के लिए बाजार से कांच खरीदा जाता है, फिर इस कांच को चक्की या इमामदस्ते में बहुत बारीक पीसा जाता है. बारीक पिसे कांच में चावल का मांड, सेलखड़ी (छुई) पाउडर, रंग मिलाया जाता है. इन सबको मिलाकर आटे की तरह गूंथा जाता है, फिर ये बना लेपसूती धागों पर चढ़ाना होता है.


बता दें कि धागे पर इस मिश्रण को चढ़ाने के दौरान कारीगर अंगुलियों की हिफाजत के लिए उस पर धागा लपेटते हैं वहीं धागों पर चढ़ा यह मिश्रण जब सूख जाता है, तो इसे खास तरीके से घिसा जाता है. इस पूरे काम को कारीगर अपनी भाषा में मांझा सूतना कहते हैं. इसके अलावा मांझा सूतने के दौरान कारीगरों को लगातार फैले हुए धागों के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जाना पड़ता है. तब जाकर मांझा तैयार होता है. बरेली का मांझा इतना बेहतरीन होता है कि पूरे देश के पतंगबाज इस मांझे की डिमांड करते हैं. 


 


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