कल्पना कीजिए कि एक ऐसा समझौता जो 200 साल पहले लिया गया हो और जिसकी किस्तें आज भी भारत सरकार को चुकानी पड़ रही हो, वो भी किसी विदेशी ताकत को नहीं, बल्कि नवाबों के वंशजों को. जी हां, यह कहानी है वसीके की. यानि अंग्रेजों के दौर की एक ऐसी आर्थिक परंपरा, जो आज भी भारत सरकार के रिकॉर्ड में जिंदा है और सरकार उसका वहन कर रही है. आइए इसके बारे में विस्तार से समझते हैं. 

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कौन सा कर्ज चुका रही भारत सरकार

वसीका शब्द फारसी भाषा से आया है, जिसका मतलब होता है ‘लिखित समझौता’. अवध के नवाबों और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच ऐसा ही एक समझौता हुआ था, जिसमें नवाबों ने कंपनी को भारी रकम कर्ज के रूप में दी थी. बदले में तय हुआ था कि उस रकम का ब्याज उनके खानदान और उनसे जुड़े लोगों को पेंशन (वसीका) के रूप में दिया जाएगा. इतिहासकार बताते हैं कि इस परंपरा की शुरुआत 1817 में हुई थी, जब अवध के नवाब शुजाउद्दौला की पत्नी बहू बेगम ने ईस्ट इंडिया कंपनी को लगभग चार करोड़ रुपये का कर्ज दिया था, उस समय के हिसाब से यह रकम अपार थी. समझौते के अनुसार, इस पर ब्याज उनके परिवार को हर महीने पेंशन की तरह दिया जाना था. यह अमानती वसीका कहलाया.

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कितनी रकम लुटा रही सरकार

समय बीता, साम्राज्य बदले, लेकिन यह परंपरा नहीं टूटी. 1857 की क्रांति के बाद जब ईस्ट इंडिया कंपनी खत्म हुई और 1874 में ब्रिटिश सरकार ने भारत का सीधा शासन संभाला, तब भी वसीका की रकम मिलती रही और आजादी के बाद 1947 में जब सत्ता भारत के हाथ आई, तब भी यह परंपरा कानून के तहत जारी रखी गई. बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश सरकार के वसीका अधिकारी एस.पी. तिवारी के मुताबिक, आजादी के समय 30 लाख रुपये का एक कोष कोलकाता रिजर्व बैंक में जमा था, जो बाद में कानपुर और फिर लखनऊ के सिंडिकेट बैंक में स्थानांतरित किया गया. अब इस रकम का लगभग 26 लाख रुपये ब्याज के रूप में उपयोग हो रहा है, जिससे आज भी करीब 1200 लोगों को वसीका मिलता है.

कितनी मिलती है वसीका की रकम

दिलचस्प बात यह है कि इन लाभार्थियों में से कुछ को अब भी दोनों दफ्तरों एक हुसैनाबाद ट्रस्ट और दूसरा उत्तर प्रदेश सरकार के वसीका कार्यालय से यह राशि मिलती है. हालांकि रकम बेहद मामूली है, कई बार तो यह 10 रुपये से भी कम होती है. इतिहासकार डॉ. रौशन तकी बताते हैं कि नवाब गाजीउद्दीन हैदर और उनके बेटे नसीरुद्दीन हैदर ने भी ईस्ट इंडिया कंपनी को करीब चार करोड़ रुपये परपेचुअल लोन (ऐसा कर्ज जो कभी मूल रूप में वापस नहीं होता) दिया था. इसके लिए भी यही शर्त थी कि उसका ब्याज उनके वंशजों को पीढ़ी दर पीढ़ी मिलता रहे.

इसे बंद करना नहीं है आसान

सरकार का कहना है कि यह सिर्फ पेंशन नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक प्रतिबद्धता है. इसे बंद करना कानूनी तौर पर आसान नहीं है, क्योंकि यह ब्रिटिश शासन से हस्तांतरित वित्तीय दायित्व माना जाता है. फिर भी कई लोग इसे सामंती दौर की बची-खुची निशानी मानते हैं और सवाल उठाते हैं कि आज के भारत में इस पेंशन का क्या औचित्य रह गया है. लेकिन समर्थकों का तर्क है कि यह परंपरा सिर्फ पैसे की नहीं, बल्कि इतिहास और सम्मान की एक जीवित याद है, उस दौर की, जब भारत की सरजमीं पर वसीका शब्द सत्ता और भरोसे का प्रतीक हुआ करता था.

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