शिक्षा-स्वास्थ्य जैसे मुद्दे पीछे छूट जाते हैं, लेकिन जाति हर चुनाव में आगे निकल जाती है. देश में विकास से ज्यादा वोटों की राजनीति में जाति है कि जाती नहीं. भले ही डिजिटल इंडिया का जमाना है, मगर चुनावी गणित अब भी जाति का ही तराना है. लेकिन यह जाति का तराना सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया के कई देशों में देखने को मिलता है. वहां विकास के मुद्दे तो छोड़िए, बिरादरी के नाम पर आज भी चुनाव होते हैं. चलिए समझें.
दक्षिण एशिया
भारत का पड़ोसी पाकिस्तान बिरादरी-आधारित राजनीति का सबसे बड़ा उदाहरण है. यहां चुनावों में जाट, अरेन, गूजर और राजपूत जैसी बिरादरियों का दबदबा साफ झलकता. नेताओं के टिकट बंटवारे से लेकर जीत-हार तक इन जातीय समूहों की अहम भूमिका होती है.
नेपाल में भी स्थिति अलग नहीं है. वहां जनजातीय पहचान और जातीय भेदभाव का असर आज भी गहरा है. राजनीतिक दल वोट जुटाने के लिए जातीय आधार पर गठजोड़ बनाते हैं.
वहीं एक और पड़ोसी देश बांग्लादेश की बात करें तो यहां धर्म और अल्पसंख्यक जातीय समूहों का मुद्दा चुनावी रणनीति का अहम हिस्सा है. चिटगांव हिल ट्रैक्ट्स इलाके में आदिवासी समूहों की पहचान राजनीतिक समीकरण तय करती है.
अफ्रीका में जनजातीय राजनीति का वर्चस्व
नाइजीरिया, केन्या और युगांडा जैसे अफ्रीकी देशों में जातीय और जनजातीय पहचान राजनीति की अहम कड़ी मानी जाती है. नाइजीरिया में सत्ता संतुलन हौसा-फुलानी, योरूबा और इग्बो जनजातियों के बीच बंटा हुआ है. वहीं केन्या में जनजातीय समीकरण अक्सर चुनाव नतीजों को पलट देते हैं. इन देशों में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी जरूरतें अक्सर जातीय खींचतान की भेंट चढ़ जाती हैं.
श्रीलंका और लेबनान में सांप्रदायिक बंटवारा
श्रीलंका लंबे समय तक सिंहली और तमिल समुदायों के बीच विभाजन की राजनीति में उलझा रहा. इस खाई ने गृहयुद्ध को जन्म दिया और आज भी चुनावों में जातीय पहचान से बड़ी भूमिका निभाती है.
लेबनान की बात करें तो यहां राजनीति पूरी तरह धार्मिक और सांप्रदायिक आधार पर बंटी हुई है. यहां राष्ट्रपति हमेशा ईसाई, प्रधानमंत्री सुन्नी मुस्लिम और संसद अध्यक्ष शिया मुस्लिम ही बनते हैं. इस बंटवारे ने विकास की राह में बड़ी रुकावट खड़ी की है.
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