Books On Abuses: भाषा का एक ऐसा पहलू, जिसे अक्सर अपशब्द या असभ्यता कहा जाता है, वह है गालियां. आमतौर पर गालियों को समाज में नकारात्मक रूप से देखा जाता है, लेकिन दुनिया भर के विद्वानों और भाषाविदों ने इस पर गंभीर अध्ययन किया है. यही वजह है कि गालियों के इतिहास, विकास और असर को लेकर कई मशहूर किताबें लिखी गई हैं. इनमें प्राचीन सभ्यताओं की सबसे पुरानी गालियों का भी जिक्र मिलता है.

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गालियों के इतिहास पर लिखी गईं प्रमुख किताबें

इस विषय पर कई अंतरराष्ट्रीय स्तर की पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं जैसे कि मेलिसा मोहर की किताब “Holy Sht: A Brief History of Swearing” बताती है कि गालियों की शुरुआत धार्मिक मान्यताओं और यौन संदर्भों से हुई थी. प्राचीन रोम और यूनान में गालियां सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था को तोड़ने का जरिया मानी जाती थीं. वहीं बेंजामिन बर्गन की किताब “What the F” इस बात की पड़ताल करती है कि दिमाग गालियों को कैसे अलग ढंग से प्रोसेस करता है. रिसर्च में पाया गया कि गालियां साधारण शब्दों की तुलना में ज्यादा भावनात्मक असर डालती हैं और गुस्सा निकालने या दर्द कम करने में मदद करती हैं.

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सामाजिक जुड़ाव और अभिव्यक्ति का भी तरीका

माइकल एडम्स की “In Praise of Profanity” गालियों को सिर्फ गुस्से का प्रतीक न मानकर भाषा का अहम हिस्सा बताती है. इसमें कहा गया है कि गालियां सामाजिक जुड़ाव और अभिव्यक्ति का एक तरीका भी हैं. इसके अलावा एश्ले मोंटागु की किताब “The Anatomy of Swearing” और एरिक पार्ट्रिज की “A Dictionary of Slang and Unconventional English” गालियों और स्लैंग शब्दों के बारे में बताती है.

दुनिया की सबसे पुरानी गालियां कहां मिलीं?

इतिहासकार बताते हैं कि दुनिया की सबसे पुरानी गालियों का जिक्र प्राचीन मेसोपोटामिया की मिट्टी की पट्टियों पर मिलता है. इन पट्टियों की उम्र लगभग 3000 ईसा पूर्व की है. इनमें ऐसी गालियां लिखी गई थीं जो मुख्यतः यौन संबंधों, पशुओं और देवी-देवताओं से जुड़ी थीं. यह दिखाता है कि गालियां सिर्फ आधुनिक समाज की उपज नहीं हैं, बल्कि हजारों सालों से मानव अभिव्यक्ति का हिस्सा रही हैं.

समाज और संस्कृति में गालियों की भूमिका

रिपोर्ट्स की मानें तो गालियां हर भाषा और संस्कृति का हिस्सा रही हैं. भारत सहित दुनिया के ज्यादातर देशों में लोग निजी बातचीत, गुस्से, दोस्ती और कभी-कभी मजाक में भी गालियों का इस्तेमाल करते हैं. हालांकि औपचारिक या सार्वजनिक जगहों पर इन्हें अस्वीकार्य माना जाता है. गालियां इस्तेमाल करने वाले लोग जरूरी नहीं कि असभ्य हों, बल्कि कई बार ये शब्द भावनात्मक दबाव कम करने का जरिया बन जाते हैं. इसीलिए भाषाविद इसे भाषा के ‘टैबू’ के रूप में देखते हैं.

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