Bihar Chunav 2025: बिहार विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए एनडीए ने आज यानी शुक्रवार, 31 अक्टूबर को अपना साझा संकल्प पत्र जारी किया. इस मौके पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा, चिराग पासवान, उपेंद्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी मौजूद रहे. सभी नेताओं ने संयुक्त रूप से मंच से एनडीए का यह घोषणापत्र जनता के सामने पेश किया. आइए जानें कि अगर एनडीए या फिर महागठबंधन ने अपने घोषणा पत्र के बादे पूरे नहीं किए तो क्या बिहार की जनता कोर्ट का रुख कर सकती है या नहीं.

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एनडीए और महागठबंधन का घोषणा पत्र जारी

चुनाव का मौसम आते ही हर पार्टी जनता के सामने वादों का पिटारा खोल देती है- रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़कें, किसानों की मदद, महिलाओं की सुरक्षा और युवाओं के सपने... हर बार घोषणापत्र में वही सब दोहराया जाता है, बस तारीखें और चेहरें बदल जाते हैं. इस बार भी एनडीए ने 31 अक्टूबर को अपना साझा संकल्प पत्र जारी कर दिया, वहीं महागठबंधन भी अपने वादों की झड़ी लगा चुका है. लेकिन सवाल वही पुराना है कि अगर इन वादों पर अमल नहीं हुआ, तो क्या जनता कोर्ट में जाकर इन पार्टियों से जवाब मांग सकती है?

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क्या वादे पूरे न होने पर कोर्ट जा सकती है जनता?

कानूनी नजरिए से देखें तो घोषणापत्र कोई कानूनी अनुबंध नहीं होता है. यानी अगर कोई पार्टी या गठबंधन वादे पूरे नहीं करता है, तो जनता उस पर कोर्ट में केस नहीं कर सकती है. भारत का संविधान और चुनाव आयोग घोषणापत्रों को राजनीतिक प्रतिबद्धता तो मानते हैं, लेकिन इसे न्यायालय में चुनौती देने योग्य दस्तावेज नहीं मानते. यह एक तरह से राजनीतिक वादा होता है, इसकी कोई कानूनी गारंटी नहीं होती है.

फिर आखिर क्या कर सकती है जनता?

लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि जनता पूरी तरह बेबस है. सुप्रीम कोर्ट ने कई बार कहा है कि चुनावी घोषणापत्र जनता के विश्वास से जुड़ा दस्तावेज है और पार्टियों को इसे गंभीरता से लेना चाहिए. अगर कोई वादा झूठा या भ्रामक साबित होता है, तो चुनाव आयोग के पास शिकायत की जा सकती है. आयोग ऐसे मामलों में पार्टी से स्पष्टीकरण मांग सकता है और गंभीर स्थिति में आचार संहिता उल्लंघन तक की कार्रवाई भी हो सकती है. हालांकि अब तक देश में ऐसा कोई बड़ा मामला नहीं हुआ, जहां किसी पार्टी को सिर्फ घोषणापत्र पूरा न करने के कारण सजा मिली हो.

बहुत से अधूरे वादे

बिहार के संदर्भ में देखें तो यहां के लोगों ने पिछले एक दशक में कई वादे सुने जैसे- हर घर बिजली, रोजगार का बूम, उद्योगों की वापसी, बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था और शिक्षा सुधार. कुछ काम जरूर हुए, लेकिन बहुत से वादे आज भी अधूरे हैं. इसीलिए लोगों के मन में यह सवाल बार-बार उठता है कि आखिर जनता को जवाब कौन देगा? लोकतंत्र में जवाबदेही सिर्फ चुनाव जीतने तक सीमित क्यों रह जाती है?

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