रेगिस्तान की खामोश रेत के नीचे जब धरती हल्के से कांपती है, तो दुनिया की सांसें थम जाती है. कहीं यह किसी नए युग की दस्तक तो नहीं? खबर है कि अमेरिका फिर से वो कदम उठाने जा रहा है, जिससे दुनिया एक बार फिर न्यूक्लियर डर के साए में लौट सकती है. 33 साल पहले जिस टेस्ट के बाद उसकी धरती शांत हुई थी, अब शायद वही इतिहास दोहराया जा सकता है. सवाल यही है कि क्या अमेरिका फिर से धरती के नीचे बारूद दफनाने जा रहा है? 

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अमेरिका फिर से करने जा रहा परमाणु परीक्षण

दरअसल, अमेरिका एक बार फिर दुनिया को अपनी परमाणु ताकत दिखाने की तैयारी में है. यह कोई सामान्य सैन्य अभ्यास नहीं, बल्कि एक ऐसे युग की वापसी है, जिसने कभी पूरी दुनिया को खामोश कर दिया था. राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की उस योजना को अब दोबारा हवा मिल रही है, जिसमें उन्होंने रक्षा मंत्रालय (पेंटागन) को आदेश दिया था कि परमाणु परीक्षणों की प्रक्रिया फिर शुरू की जाए, ताकि चीन और रूस जैसी शक्तियों के सामने अमेरिका अपनी ताकत का प्रदर्शन कर सके.

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क्या जमीन के अंदर ही होते हैं न्यूक्लियर टेस्ट?

परमाणु परीक्षण हमेशा जमीन पर नहीं होते. इन्हें तीन श्रेणियों में बांटा जाता है, वायुमंडलीय (हवा में), भूमिगत (जमीन के नीचे) और जलीय (समुद्र की गहराई में). 1996 में हुए कंप्रीहेंसिव न्यूक्लियर टेस्ट बैन ट्रीटी यानी CTBT के बाद लगभग सभी देशों ने हवा और समुद्र में किए जाने वाले परीक्षण बंद कर दिए हैं. अब दुनिया भर में केवल भूमिगत या सिमुलेशन टेस्ट ही किए जाते हैं.

किसने सबसे ज्यादा किए परमाणु परीक्षण?

1945 से अब तक दुनिया में 2,000 से ज्यादा न्यूक्लियर टेस्ट हो चुके हैं. इनमें अमेरिका, रूस (सोवियत संघ), ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, भारत, पाकिस्तान और उत्तर कोरिया जैसे देश शामिल हैं. अमेरिका के लिए ये टेस्ट उसकी सैन्य शक्ति और वैज्ञानिक क्षमता दोनों की परीक्षा रहे हैं.

ऐसे होता है न्यूक्लियर ब्लास्ट

किसी भी टेस्ट से पहले पूरा इलाका खाली कराया जाता है. वायुसेना गश्त करती है, वैज्ञानिक बंकरों में चले जाते हैं. जब सब तैयार होता है, तो इलेक्ट्रॉनिक ट्रिगर से विस्फोट होता है और चेन रिएक्शन शुरू होती है. लाखों डिग्री तापमान, तेज रोशनी और अरबों न्यूट्रॉन की बारिश होती है. ऊपर से लगता है जैसे बस हल्का भूकंप आया हो, लेकिन अंदर धरती का सीना चीरकर एक बड़ा गड्ढा बन चुका होता है.

कुछ ही सेकंडों में सुपरकंप्यूटर डेटा पढ़ लेते हैं और वैज्ञानिक तय करते हैं कि बम कितना शक्तिशाली था. फिर रोबोट और ड्रोन रेडिएशन के नमूने लेते हैं, इलाके को सील किया जाता है और महीनों तक पर्यावरण की मॉनिटरिंग होती है.

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