Darul Uloom Deoband: अफगानिस्तान में तालिबान के नेतृत्व वाली सरकार के विदेश मंत्री अमीर खान मुतक्की भारत दौरे पर हैं. 2021 में तालिबान की सत्ता पर अधिकार जमाने के बाद से यह किसी तालिबान प्रतिनिधि की पहली यात्रा होगी. शुक्रवार को मुतक्की ने भारत के विदेश मंत्री डॉ एस जयशंकर से मुलाकात की. हालांकि इसी बीच जिस बात ने खास ध्यान खींचा है वह है कि आज मुतक्की उत्तर प्रदेश के देवबंद में स्थित इस्लामी मदरसा दारुल उलूम का दौरा करने पहुंच चुके हैं. आइए जानते हैं दारुल उलूम के बारे में.
दारुल उलूम का क्या मतलब है
यह शब्द अरबी भाषा से आया है और इसका मतलब है ज्ञान का घर. दरअसल यह जगह एक इस्लामी मदरसा है जहां पर विद्वान और छात्र कुरान, हदीस, इस्लामी कानून (शरिया) और धर्मशास्त्र के बारे में पढ़ते हैं. दुनिया भर में कई इस्लामी संस्थाओं ने इस नाम का इस्तेमाल किया है, लेकिन उनमें से कोई भी दारुल उलूम देवबंद जितना विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त नहीं है.
कब हुई थी इस संस्थान की स्थापना
दारुल उलूम दुनिया के सबसे बड़े और प्रभावशाली इस्लामी संस्थानों में से एक है. यह उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के देवबंद में स्थित है. इसकी स्थापना ब्रिटिश शासन के दौरान 30 मई 1866 को औपनिवेशिक प्रभाव का विरोध करते हुए पारंपरिक इस्लामी शिक्षा के संरक्षण और प्रसार के उद्देश्य से की गई थी.
बाद में यही मदरसा देवबंदी आंदोलन का जन्म स्थान बना. यह आंदोलन हनफी विचारधारा पर आधारित एक इस्लामी आंदोलन था. इस आंदोलन का उद्देश्य कुरान और शरिया के सख्त पालन पर जोर देना था. इस मदरसे का प्रभाव सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में फैला हुआ है. मदरसे ने दक्षिण एशिया, मध्य एशिया और अफ्रीका के कुछ हिस्सों में धार्मिक शिक्षा और इस्लामी विचारधारा को काफी ज्यादा आकार दिया है.
अफगानिस्तान के साथ संबंध
दारुल उलूम देवबंद और अफगान तालिबान के बीच एक वैचारिक संबंध रखता है. 1947 में देवबंद की शिक्षाओं से प्रेरित होकर अफगान सीमा के पास पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा में दारुल उलूम हक्कानिया की स्थापना हुई. इसके संस्थापक मौलाना अब्दुल हक देवबंद के पूर्व छात्र थे और उन्होंने उसी पाठ्यक्रम और धार्मिक ढांचे को लागू किया. हक्कानिया का पाठ्यक्रम बिल्कुल दारुल उलूम देवबंद के पाठ्यक्रम जैसा ही है.
अफगानिस्तान के राजा भी कर चुके हैं दौरा
ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है जब अफगान से कोई देवबंद का दौरा करने आया हो. 1958 में अफगानिस्तान के राजा मोहम्मद जहीर शाह भी दारुल उलूम का दौरा करने के लिए भारत आए थे. इसके बाद उनके सम्मान में बाब-ए-जाहिर नाम के एक द्वारा का निर्माण किया गया था.
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