11 दिसंबर, 2018. मध्यप्रदेश की सियासत की वो तारीख, जब कांग्रेस पार्टी ने 15 साल से राज्य की सत्ता पर काबिज बीजेपी के किले को ध्वस्त कर दिया था. तब राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष हुआ करते थे. चुनौती थी कि मुख्यमंत्री किसे बनाया जाए. एक अनुभवी और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ को या फिर एक युवा और राजघराने से ताल्लुक रखने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया को. कई दिनों तक खींचतान चलती रही और फिर आखिर में सीएम बने कमलनाथ. और यहीं से बात बिगड़नी शुरू हो गई. बात इतनी बिगड़ी कि सरकार के 15 महीने भी पूरे नहीं हुए और सिंधिया ने गच्चा दे दिया. आखिर क्या है कमलनाथ और सिंधिया के बीच की असली लड़ाई.
संजय गांधी की दोस्ती से नेता बने कमलनाथ
पहले आपको बताते हैं कि कमलनाथ और ज्योतिादित्य सिंधिया के बीच समानताएं क्या हैं, ताकि सियासत को और ठीक से समझा जा सके. तो दोनों ही दून स्कूल से पढ़े हैं. दोनों ही कांग्रेस के महासचिव रह चुके हैं. दोनों ही एक-एक लोकसभा का चुनाव हार चुके हैं. दोनों ही मध्य प्रदेश की राजनीति करते रहे हैं और दोनों ही केंद्र में मंत्री रह चुके हैं. लेकिन अब दोनों के बीच उस अंतर की बात कर लेते हैं, जिसकी वजह से मध्यप्रदेश की राजनीति में भूचाल आया हुआ है.
और अंतर शुरू होता है दून की स्कूलिंग से ही. जब कमलनाथ ने दून स्कूल में पढ़ाई की तो वहां उनकी दोस्ती हुई थी संजय गांधी से. बचपन की इस दोस्ती ने सियासी दोस्ती का भी रंग ले लिया और फिर कमलाथ की एंट्री हुई पॉलिटिक्स में. इमरजेंसी के बाद चुनाव में इंदिरा हार चुकी थीं. मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी थी. लेकिन ये सरकार भी टिक नहीं पाई. 1980 में फिर से चुनाव होने थे. और तब कमलनाथ को टिकट मिला छिंदवाड़ा से. वो छिंदवाड़ा, जिसने इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में भी इंदिरा का साथ दिया था और उस सीट पर वरिष्ठ कांग्रेसी नेता गार्गी शंकर मिश्र ने जीत दर्ज की थी. लेकिन 80 का चुनाव आते-आते इंदिरा गांधी गार्गी शंकर मिश्रा के खिलाफ हो गईं. और फिर टिकट मिला कमलनाथ को. खुद इंदिरा गांधी प्रचार करने आईं. कहा कि मैं नहीं चाहती कि आपलोग कांग्रेसी नेता कमलनाथ को वोट दें, मैं चाहती हूं कि आप मेरे तीसरे बेटे कमलनाथ को वोट दें. इंदिरा की अपील काम कर गई. नारा उछला, इंदिरा के दो हाथ, संजय गांधी-कमलनाथ. और कमलनाथ जीत गए. ऐसा जीते, ऐसा जीते कि छिंदवाड़ा लोकसभा और कमलनाथ एक दूसरे का पर्याय बन गए. एक बेहद पिछड़ा हुआ इलाके में स्कूल-कॉलेज और आईटीपार्क बनना शुरू हुआ. वेस्टर्न कोलफील्ड्स और हिंदुस्तान यूनीलिवर जैसी कंपनियां आ गईं. क्लॉथ मेकिंग ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट और ड्राइवर ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट जैसी चीजें बनने लगीं ताकि लोगों को रोजगार मिल सके.
बंगले की चाहत ने हरा दिया चुनाव
अपने हरे रंग की लैंड रोवर कार में पूरे इलाके में घूमते रहने वाले कमलनाथ जनता के बीच लोकप्रिय होने लगे. 1980 से 1991 तक लगातार चुनाव जीतते चले गए. फिर आया जैन हवाला कांड. डायरी में लालकृष्ण आडवाणी और मदनलाल खुराना के अलावा कुछ और भी नाम शामिल थे, जिनमें एक नाम केएन भी था. इसका अर्थ कमलनाथ से लगाया गया. और फिर 1996 में कमलनाथ की जगह चुनाव लड़ा उनकी पत्नी अलका नाथ ने. पति का नाम और पति का काम, नतीजा अलका नाथ चुनाव जीत गईं. और तब तक बीजेपी ने भी ये मान लिया था कि छिंदवाड़ा में कमलनाथ की सत्ता को कोई चुनौती नहीं दे सकता है. लेकिन फिर जैन हवाला कांड की आंच ठंडी हो गई और सबको क्लीन चिट मिल गई. लेकिन कमलनाथ के सामने एक और मुसीबत थी. और वो ये कि वो अब सांसद नहीं थे, तो उन्हें दिल्ली के तुगलक लेन का बंगला खाली करना था. कोशिश की थी कि उनकी पत्नी अलका नाथ के नाम पर वो बंगला मिल जाए, लेकिन पहली बार जीते हुए सांसद को इतना बड़ा बंगला नहीं मिल सकता था. बंगले की चाहत ऐसी थी कि कमलनाथ ने अपनी पत्नी अलका नाथ का इस्तीफा करवा दिया, ताकि वो खुद चुनाव लड़कर सांसद बन सकें और उनका बंगला बच जाए. अब छिंदवाड़ा में उपचुनाव होने थे, लेकिन बीजेपी इस बार कमलनाथ को वॉकओवर देने के बिल्कुल भी मूड में नहीं थी. नतीजा ये हुआ कि कमलनाथ के सामने चुनावी मैदान में उतरे मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा. नतीजे आए तो कमलनाथ चुनाव हार चुके थे. ये कमलनाथ की इकलौती चुनावी हार थी. 1998 के बाद कमलनाथ ने फिर से अपनी सीट जीत ली और तब से लेकर 2014 तक वो लगातार इस सीट से जीत दर्ज करते रहे. इस दौरान नरसिम्हा राव सरकार में कई मंत्रालयों का स्वतंत्र प्रभार भी संभाला था. 2004 की पहली यूपीए सरकार में वो कॉमर्स और इंडस्ट्री मिनिस्टर थे, जबकि दूसरी यूपीए सरकार में वो सड़क और परिवहन मंत्री थे. बाद में शहरी विकास मंत्री और फिर संसदीय कार्य मंत्री बने थे. और अब फिलहाल वो मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री हैं. कब तक रह पाएंगे, नहीं पता. और इसकी वजह हैं ज्योतिरादित्य सिंधिया.
पिता की विरासत संभालने को नेता बने सिंधिया
ज्योतिरादित्य सिंधिया की भी कहानी 1980 से ही शुरू होती है. 80 के लोकसभा चुनाव में ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव सिंधिया ने अपनी मां विजयराजे सिंधिया से बगावत कर ली थी और कांग्रेस में शामिल हो गए थे. जैसे कमलनाथ की पारंपरिक सीट रही है छिंदवाड़ा, ठीक वैसे ही सिंधिया परिवार की पारिवारिक सीट रही है गुना. माधवराव सिंधिया भी गुना से लगातार जीत दर्ज करते रहे. राजीव गांधी सरकार और फिर नरसिम्हा राव सरकार में बड़े-बड़े मंत्रालय संभाले. गुना से सांसद रहने के दौरान ही 30 सितंबर, 2001 को उनका प्लेन क्रैश हो गया और उनकी मौत हो गई. इसके बाद गुना की जिम्मेदारी आ गई माधव राव सिंधिया के बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया पर. 2002 के उपचुनाव से लेकर 2014 के लोकसभा चुनाव तक ज्योतिरादित्य लगातार जीतते रहे. और फिर 2019 में वो बीजेपी के केपी यादव के हाथों हार गए. वो केपी यादव, जो कभी सिंधिया के सांसद प्रतिनिधि हुआ करते थे.
और अब शायद आपको कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच की समानता और उनके बीच का अंतर पता चल चुका होगा. कमलनाथ की राजनीति शुरू हुई थी संजय गांधी की दोस्ती से और ज्योतिरादित्य सिंधिया की राजनीति शुरू हुई थी पिता की विरासत से. यही वजह है कि 15 साल से एमपी की सत्ता पर काबिज बीजेपी के मुकाबले जब मध्यप्रदेश में कांग्रेस को ज़िंदा करने की कवायद शुरू हुई तो प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर जो सबसे पहला नाम उभरा वो कमलनाथ का ही था. 26 अप्रैल, 2018 को मध्य प्रदेश का कांग्रेस का प्रभार संभालने के बाद कमलनाथ ने भोपाल में डेरा डाल दिया. पार्टी ऑफिस का रंग रोगन करवाया, फर्नीचर लगवाए और 8 महीने के अंदर ही कांग्रेस को इस स्थिति में खड़ा कर दिया कि 230 में से 114 सीटें कांग्रेस के खाते में आ गईं. बीजेपी के खाते में आईं 107 सीटें. बीएसपी के दो, सपा के एक और चार निर्दलीय उम्मीदवारों ने चुनाव में जीत दर्ज की. सरकार बनाने का आंकडा 116 था. कांग्रेस के पास दो सीटें कम थीं और बीजेपी के पास 9. इस छोटे से अंतर को पाटना बीजेपी के लिए कोई बड़ी बात नहीं थी. और यही वजह है कि जब चुनाव के बाद एके एंटनी को मध्यप्रदेश का पर्यवेक्षक बनाकर भेजा गया तो सीधे तौर पर नाम सामने आया कमलनाथ का. राहुल गांधी ने भी युवा ज्योतिरादित्य पर अनुभवी कमलनाथ को तरजीह दी और कमलनाथ मुख्यमंत्री बन गए.
कमलनाथ के खिलाफ खोल दिया था मोर्चा
ज्योतिरादित्य के हाथ कुछ भी नहीं लगा. उन्हें लगा था कि वो कम से कम प्रदेश अध्यक्ष तो बन ही जाएंगे, लेकिन कमलनाथ ने ये भी नहीं होने दिया. सिंधिया ने चार इमली में बी-17 बंगला मांगा, तो वह भी कमलनाथ के बेटे नकुलनाथ को दे दिया गया. और इसके बाद सिंधिया ने कमलनाथ सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने का समर्थन किया, अपना ट्वीटर बायो बदला और फिर उनकी पूरी बॉडी लैंग्वेज ही बदलती दिखी. फरवरी, 2020 में टीकमगढ़ में शिक्षकों को संबोधित करते हुए सिंधिया ने कहा कि अगर मध्यप्रदेश सरकारा वादे पूरा नहीं करती, तो मैं सड़क पर उतरूंगा. इससे पहले भी सिंधिया ने कहा था कि अगर कांग्रेस सरकार घोषणा पत्र के वादे पूरा नहीं करती और किसानों की कर्जमाफी नहीं होती है, तो मैं सड़क पर उतरूंगा. कमलनाथ ने इसका जवाब भी दिया था और कहा था कि वो उतर जाएं. रही सही कसर राज्यसभा ने पूरी कर दी. 26 मार्च को मध्यप्रदेश में राज्यसभा की तीन सीटों पर चुनाव होना है. विधायकों की संख्या के लिहाज से एक सीट बीजेपी की और एक सीट कांग्रेस की तय है. वहीं तीसरी सीट के लिए बीजेरी और कांग्रेस के बीच वोटिंग हो सकती है. कांग्रेस ने अपनी सेफ सीट दिग्विजय सिंह के लिए छोड़ रखी है. ज्योतिरादित्य को राज्यसभा जाने के लिए वोटिंग के नतीजे देखने होते. और इससे ज्योतिरादित्य और नाराज हो गए. खुद बीजेपी से संपर्क साधा. पीएम मोदी-गृह मंत्री अमित शाह से मिले और फिर 11 मार्च को बीजेपी जॉइन कर ली. इसके साथ ही दो पार्टियों में बंटी सिंधिया खानदान की विरासत अब एक पार्टी के साथ हो गई है. ज्योतिरादित्य की दो बुआ वसुंधरा राजे और यशोधरा राजे भी बीजेपी में ही हैं. वसुंधरा राजे के बेटे दुष्यंत भी बीजेपी से सांसद हैं. अपनी राजनीति के सबसे बड़े टर्निंग पॉइंट पर पहुंचे ज्योतिरादित्य का भविष्य क्या होगा, ये तो वक्त बताएगा लेकिन फिलहाल ये साफ दिख रहा है कि ज्योतिरादित्य ने अपना वर्तमान संवारके मध्यप्रदेश में कांग्रेस और कमलनाथ के भविष्य पर जोरदार प्रहार किया है. बाकी ये राजनीति है. हर पल बदलती रहती है.