Sri Lanka's Languages Dispute: जब बहुसंख्यक समुदाय दूसरों पर प्रभुत्व कायम करने और सत्ता में किसी को हिस्सेदार न बनाने का फैसला करता है, तो इससे देश की एकता पर ही संकट नहीं आता, बल्कि देश दिवालिया हो जाता है और इसका जीता-जागता और बेहतरीन उदाहरण श्रीलंका (Sri Lanka) है. इतना ही नहीं यहां के बहुसंख्यक समुदाय ने इस देश में भाषा-बोली के नाम पर भी अपना पूरा हक जमाना चाहा. यही वजह है कि भारत के दक्षिण से केवल 31 किलोमीटर पर बसा यह द्वीपीय देश भाषा-बोली के नाम पर भी संघर्षों के लिए जाना जाता है. सत्ता का नशा और उस पर बहुसंख्यक होने का घमंड  श्रीलंका का इतिहास कुछ ऐसा रहा है. यहां भाषा को लेकर जंग छिड़ी और उसकी चपेट में आकर देश झुलसता रहा और अब -तक संभलने में नहीं आया. भाषा का ये विवाद इस देश को बद से बदतर हालात में ले आया. यहां इस बारे में सबकुछ जानिए और सबक लीजिए कि सत्ता की हनक में भाषा को हथियार बनाने का नतीजा क्या होता है?


कई भाषा-बोली हैं यहां


दक्षिण एशिया के अन्य देशों की तरह लगभग 23 करोड़ की आबादी वाले  श्रीलंका की आबादी में भी कई जातीय समूहों के लोग हैं. यहां सबसे प्रमुख सामाजिक समूह सिंहलियों (Sinhalese) का है जिनकी आबादी कुल जनसंख्या की 74 फीसदी है. इसके बाद तमिलों का नंबर आता है. जिनकी आबादी जनसंख्या का 18 फीसदी है. यहां तमिलों के भी दो समूह हैं. इनमें श्रीलंका और हिन्दुस्तानी मूल के तमिल (Tamil) शामिल हैं. श्रीलंका मूल के तमिलों की आबादी 13 फीसदी है. हिन्दुस्तानी मूल के तमिल वो हैं जो औपनिवेशिक शासनकाल में बागानों में काम करने के लिए भारत से लाए गए लोगों की संतान हैं. मौजूदा श्रीलंका का नक्शा भी यहां की भाषा के बारे में बगैर कहे ही बहुत कुछ कहता है. इसे गौर से देखेंगे तो आप तो आपको पता लगेगा कि तमिल खासकर उत्तर और पूर्वी प्रांतों में आबाद हैं. इसके साथ ही अधिकतर सिंहली-भाषी लोग बौद्ध हैं, जबकि इनमें कुछ हिंदू और कुछ मुसलमान भी हैं.सिंहली और तमिल दोनों भाषाएं बोलने वाले ईसाई लोगों का श्रीलंका की आबादी में सात फीसदी हैं. आबादी का यही आंकड़ा भाषा पर भी असर दिखाता है. 


सत्ता पर कब्जा जमाने के लिए लिया भाषा का सहारा


भारत की तरह ही श्रीलंका को भी 1948 में ब्रितानी हुकूमत से आजादी मिली. ये एक अलग आजाद देश बना और यहीं से शुरू हुआ बहुसंख्यक सिंहली समुदाय का अपनी भाषा के आधार पर सत्ता ही नहीं पूरे देश को कब्जाने का सिलसिला. सिंहली समुदाय के नेताओं ने अपनी अधिक संख्या के बल पर शासन पर प्रभुत्व जमाना चाहा और इसमें वो सफल भी हुए. बता दें कि श्रीलंका के मौजूदा आर्थिक संकट के लिए जबावदेह देश से फरार  गोटाबाया राजपक्षे इसी बहुसंख्यक सिंहली (Sinhala) समुदाय से आते हैं.यही वजह रही कि लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार ने सिंहली समुदाय का दबदबा कायम करने के लिए अपनी बहुसंख्यक-परस्ती को बढ़ाने की हर संभव कोशिश की. ऐसी ही एक कोशिश को सिंहली समुदाय ने 1956 में अंजाम दिया. इस साल उन्होंने एक कानून बनाया. इसके तहत तमिल भाषा को दरकिनार कर सिंहली को एकमात्र राजभाषा (Sri Lanka Official And National Language) घोषित कर दिया गया. इसके बाद विश्वविद्यालयों और सरकारी नौकरियों में सिंहलियों को प्राथमिकता देने की नीति भी चली. नए संविधान में यह प्रावधान भी किया गया कि सरकार बौद्ध मत को संरक्षण और बढ़ावा देगी.


जब भाषा ने डाली दरार


श्रीलंका की सत्ता में बैठे बहुसंख्यक समुदाय की सिंहलियों को प्राथमिकता देने की ये नीति देश को धीरे-धीरे बर्बादी के कगार पर धकेलने लगी. एक-एक कर आए इन सरकारी फैसलों ने श्रीलंकाई तमिलों की शासन के प्रति नाराजगी और बेगापन बढ़ता चला गया. उन्हें महसूस होने लगा कि बौद्ध धर्मावलंबी सिंहलियों के नेतृत्व वाली राजनीतिक पार्टियों उनकी भाषा और संस्कृति को लेकर असंवेदनशील हैं. उन्हें लगने लगा कि संविधान और सरकार की नीतियां उन्हें समान अवसरों और राजनीतिक अधिकारों से दूर कर रही हैं. नौकरी से लेकर अन्य कामों में उनके साथ भेदभाव कर उनके हितों की अनदेखी की जा रही है. इसका नतीजा ये हुआ कि सिंहली और तमिल समुदायों के संबंध बिगड़ते चले गए और उनके बीच की खाई बढ़ती गई.


तमिल भाषियों ने बनाई अपनी पार्टी


श्रीलंका में अपने को कटा महसूस करने वाले श्रीलंकाई तमिलों ने अपनी राजनीतिक पार्टियां  बनाईं. इस समुदाय ने तमिल को राजभाषा बनाने, क्षेत्राीय स्वायत्तता हासिल करने के साथ ही शिक्षा और रोजगार में समान अवसरों की मांग को लेकर संघर्ष किया. लेकिन बहुसंख्यक सिंहली भाषी समुदाय की सरकार तमिलों की आबादी वाले इलाके की स्वायत्तता की मांग को लगातार नकारती रही. नतीजा ये हुआ कि साल 1980 के दशक तक उत्तर-पूर्वी श्रीलंका में आजाद  तमिल ईलम यानि सरकार बनाने की मांग वाले अनेक राजनीतिक संगठन बने. लिट्टे ऐसा ही संगठन था.


भाषाई विवाद का नतीजा लिट्टे 
भाषाई विवाद का नतीजा ये हुआ कि इस देश की दशा-दिशा बदल देने वाला तमिल ईलम के मुक्ति बाघ- लिट्टे (Liberation Tigers of Tamil Eelam- LTTE ) संगठन खड़ा हो गया. पूरी दुनिया में श्रीलंका इस खतरनाक संगठन के लिए भी जाना जाता है, जिसने देश में गृहयुद्ध ला दिया. मई 1976 में यह संगठन बना. इसका उद्देश्य एक हिंसक पृथकतावादी अभियान के जरिए उत्तर और पूर्वी श्रीलंका में एक स्वतंत्र तमिल राज्य बनाना था. इनका इस अभियान को  श्रीलंकाई नागरिक युद्ध कहा गया. ये एशिया में सबसे लंबे वक्त तक चलने वाला सशस्त्र संघर्ष था.ये तब -तक चलता रहा जब- तक श्रीलंका की सेना ने  मई 2009 में इसका सफाया नहीं कर दिया. इसी युद्ध कि वजह उस वक्त  73 साल के गोटाबाया राजपक्षे ( Gotabaya Rajapaksa) को देशवासियों ने भगवान का दर्जा दे डाला. खासकर सिंहली बौद्धों उन्हें देश का रक्षक बता कर पूजा. इस गृहयुद्ध के दौरान उनके बड़े भाई महिंदा राजपक्षे राष्ट्रपति थे. गोटाबाया 2006 में लिट्टे के एक आत्मघाती हमले में बाल-बाल बच गई थे,  तब उन्हें जनता की तरफ से सहानुभूति मिली. इसी को उन्होंने अपना राजनीतिक कद बढ़ाने के लिए आगे बढ़ाया.


भाषा से जुड़ा विवाद बन गया अविश्वास


भाषाई आधार पर बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक में बंटे श्रीलंका में दो समुदायों के बीच पारस्परिक अविश्वास की ये खाई चौड़ी होती गई. एक वक्त वो आया जब इसने बड़े टकराव का रूप ले लिया. स्थिति इस हद तक बिगड़ी की इसने श्रीलंका को गृहयुद्ध की आग में झोंक डाला. इस केवल एक पक्ष के ही नहीं बल्कि दोनों पक्षों के हजारों लोग मौत की भेंट चढ़ गए. कई लोग परिवार सहित भागकर शरणार्थी बनने को मजबूर हुए. लोगों का रोजी-रोटी तक के लाले पड़ गए. इस युद्ध ने इस मुल्क के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन के ताने-बाने को हिला कर रख दिया. साल 2009 में इस युग की समाप्ति हुई, लेकिन भाषा के आधार पर बंटे इस देश को कभी चैन नहीं मिला. साल 2022 में इस देश का भयंकर आर्थिक और मानवीय संकट पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय बना हुआ है.


औपनिवेशिक शक्तियों का भाषा पर असर


साल 1972 तक श्रीलंका को सीलोन (Ceylon) कहा जाता था. बाद में इसे बदलकर लंका और इसके बाद इसके आगे आदरसूचक शब्द "श्री" जोड़कर श्रीलंका कर दिया गया. ब्रितानी हुकूमत का उपनिवेश होने का असर यहां की भाषाई विविधता पर भी पड़ा. यही वजह है कि श्रीलंका में भारत-यूरोपीय, द्रविड़ और ऑस्ट्रोनियन परिवारों में कई तरह की भाषाएं बोली जाती हैं, लेकिन इस सबके बाद भी ये देश में सिंहली और तमिल को आधिकारिक दर्जा मिला हुआ है तो अंग्रेजी को लिंक भाषा के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. इस द्वीपीय देश में बोली जाने भाषाओं पर इसके पड़ोसी देश भारत, मालदीव और मलेशिया का भी गहरा प्रभाव देखने को मिलता है. यहां आने वाली अरबी, पुर्तगाल, नीदरलैंड और ब्रिटेन की औपनिवेशिक शक्तियों ने श्रीलंका में आधुनिक भाषाओं के विकास पर भी असर डाला है. यहां की 10 फीसदी आबादी अंग्रेजी बोलती है और यह बहुतायत से आधिकारिक और व्यावसायिक कामों में इस्तेमाल होती है. यहां के शहरी इलाकों में खासकर 74000 की मूल भाषा अंग्रेजी ही है. यहां पुर्तगाली मूल के लगभग 3,400 लोग हैं. इनमे बहुत कम श्रीलंकाई पुर्तगाली बोलते हैं. श्रीलंका के मुस्लिम लोग धार्मिक कामों में अरबी भाषा का इस्तेमाल करते हैं. 


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