क्या सिर्फ राज्यसभा चुनाव के लिए राजस्थान की राजनीति में उथल-पुथल मची हुई है. दरअसल ऊपर से ये सवाल जितना सीधा दिखता है, उसका जवाब उतना सीधा है नहीं. और ये सीधा क्यों नहीं है, इसके कुछ उदाहरण हमारे सामने हैं. पहला उदाहरण है कर्नाटक का. कर्नाटक में साल 2018 में विधानसभा के चुनाव हुए. तीन प्रमुख दलों यानि कि बीजेपी, कांग्रेस और जनता दल सेक्युलर ने अलग-अलग चुनाव लड़ा. बहुमत किसी को नहीं मिला, लेकिन बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी थी. तब बीएस येदियुरप्पा ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली. इस बीच कांग्रेस और जेडीएस हाथ मिला चुके थे और उनके पास बहुमत का आंकड़ा हो गया था. येदियुरप्पा बहुमत साबित नहीं कर पाए और फिर जेडीएस के नेता एचडी कुमार स्वामी कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने. लेकिन फिर लोकसभा चुनाव हुए और मोदी सरकार की केंद्र में वापसी हो गई. इसके बाद कर्नाटक में 17 विधायकों ने बगावत कर दी. दो निर्दलीय विधायकों ने भी सरकार से समर्थन वापस ले लिया. मामला पहुंचा सुप्रीम कोर्ट. कोर्ट ने फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया और फिर कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस की सरकार गिर गई. बहुमत से सत्ता में वापस लौटे बीएस येदियुरप्पा. रही सही कसर बागी विधायकों के अयोग्य करार दिए जाने के बाद हुए उपचुनाव ने पूरी कर दी. अब वहां पर बीजेपी की बहुमत की सरकार है.

दूसरा उदाहरण है मध्य प्रदेश का. मध्यप्रदेश में विधानसभा की कुल 230 सीटे हैं. 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी को मिलीं 109 सीटें. कांग्रेस के खाते में आईं 114 सीटें. बीएसपी के पास दो थे, सपा के पास एक और चार निर्दलीय थे. सपा, बीएसपी और निर्दलीय विधायकों ने कांग्रेस का समर्थन किया और फिर कमलनाथ मुख्यमंत्री बन गए. तब कांग्रेस के दिग्गत नेता रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थक नाराज हो गए. लेकिन सरकार चलती रही. करीब 15 महीने के बाद फरवरी 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस से बगावत कर दी. बीजेपी के साथ चले गए. उनके साथ ही 22 और विधायक चले गए. नतीजा कमलनाथ सरकार अल्पमत में आ गई. बहुमत साबित करने के लिए विपक्षी बीजेपी जोर देने लगी. मामला पहुंचा सुप्रीम कोर्ट. कोर्ट ने कमलनाथ से बहुमत साबित करने को कहा. वो नहीं कर पाए और सरकार गिर गई. फिर से शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में बीजेपी ने सरकार बना ली.

इस तरह की सियासत का एक तीसरा भी उदाहरण है, जहां कोशिश के बाद भी बीजेपी को कामयाबी नहीं मिल पाई थी. ये उदाहण है महाराष्ट्र का. महाराष्ट्र में बीजेपी और शिवसेना ने मिलकर 2018 में विधानसभा का चुनाव लड़ा. रिजल्ट आने के बाद गठबंधन में दरार पड़ गई. बीजेपी और शिवसेना के रास्ते अलग-अलग हो गए. नतीजा ये हुआ कि बहुमत किसी के पास नहीं था. फिर एनसीपी नेता अजीत पवार ने रातो रात बीजेपी से हाथ मिला लिया और विधायकों के समर्थन की चिट्ठी सौंप दी. 23 नवंबर की सुबह जब लोग अभी नींद से जागे भी नहीं थे, बीजेपी नेता और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके देवेंद्र फडणवीस ने दोबारा मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. अजीत पवार उपमुख्यमंत्री बने. लेकिन ये गठबंधन टिक न सका. एनसीपी मुखिया शरद पवार ने एनसीपी और बीजेपी के गठबंधन को नकार दिया. लंबी खींचतान चली और फिर कांग्रेस, एनसीपी और शिवसेना एक साथ आ गए. नतीजा ये हुआ कि फडणवीस के पास बहुमत नहीं बचा और फिर उद्वव ठाकरे मुख्यमंत्री बने.

और अब बात राजस्थान की, जहां सियासत हर पल नए रंग ले रही है. राजस्थान में विधानसभा सीटों की कुल संख्या है 200. सरकार बनाने के लिए यहां विधायक चाहिए होते हैं 101. फिलहाल कांग्रेस नेता अशोक गहलोत यहां मुख्यमंत्री हैं. उनके पास 107 कांग्रेस के विधायक हैं. साथ ही बीटीपी के दो, सीपीएम के 2, आरएलडी के एक और 12 निर्दलीय विधायक भी हैं. वहीं बीजेपी के पास खुद के 72 विधायक हैं. साथ ही तीन आरएलपी के विधायक हैं. यानि कि बीजेपी के पास कुल 75 विधायक हैं. यानि कि अगर बीजेपी को राजस्थान में अपनी सरकार बनानी हो तो 26 और विधायक चाहिए. अगर कर्नाटक और मध्यप्रदेश के उदाहरण देखें तो 26 विधायकों का टूटना कोई बड़ी बात नहीं दिख रही है.

और इस टूट का लिटमस टेस्ट है राज्यसभा का चुनाव. 19 जून को राजस्थान की तीन राज्यसभा सीटों के लिए वोटिंग होनी है. अब विधायकों के संख्या बल के लिहाज से तो कांग्रेस के पाले में दो और बीजेपी के पाले में एक सीट जाना तय है. लेकिन बीजेपी ने दूसरी सीट के लिए भी दांव चल दिया है. उसने राजेंद्र गहलोत और ओंकार सिंह लाखावत को अपना उम्मीदवार बनाया है. बीजेपी को दोनों सीटें जीतने के लिए 27 और विधायकों की ज़रूरत है. और ये जरूरत पूरी हो सकती है कुछ निर्दलीय विधायकों से, सपा-बीएसपी के विधायकों से और कुछ कांग्रेस के विधायकों से. लेकिन कांग्रेस अपने या अपने सहयोगी एक भी विधायक को टूटने से बचाने की पुरजोर कोशिश कर रही है. क्योंकि कांग्रेस को भी पता है कि बात सिर्फ राज्यसभा की एक सीट की नहीं, उससे कहीं आगे की है.

ये तो तय है कि अगर 27 विधायक टूटते हैं और राज्यसभा में बीजेपी के लिए वोटिंग करते हैं तो फिर अशोक गहलोत सरकार का अल्पमत में आना तय है. अशोक गहलोत भी राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं. उन्हें बखूबी पता है कि फिलहाल करना क्या है. और यही वो कर रहे हैं. अपने विधायकों को होटल और रिजॉर्ट में लेकर जा रहे हैं. चुनाव में अब भी एक हफ्ते से ज्यादा का वक्त बचा हुआ है, लेकिन कांग्रेस और उसके सहयोगी विधायक होटल में बंद हैं और आलाकमान उनकी निगरानी कर रहा है. सबको पता है कि अगर राज्यसभा की एक सीट हाथ से गई, तो फिर आने वाले दिनों में राजस्थान की सत्ता को कांग्रेस के हाथ से फिसलने से कोई नहीं रोक सकता है.