ये बात तो अब तक आपको भी पता चल ही गई होगी कि अमेरिका के कई राज्यों में कर्फ्यू जैसे हालात हैं. वॉइट हाउस के बाहर हजारों की संख्या में प्रदर्शनकारी जमा हैं और राष्ट्रपति ट्रंप को प्रदर्शनकारियों से बचने के लिए बंकर में जाना पड़ा है. आपको इसकी वजह भी पता होगी कि एक अश्वेत अमेरिकी नागरिक जॉर्ज फ्लायड की पुलिस हिरासत में मौत का वीडियो सामने आया है, जिसके बाद ये हिंसा भड़क गई है. अब अमेरिकी अश्वेतों को बराबरी का हक दिलाने के लिए लाखों लोग सड़कों पर उतर आए हैं और हिंसक प्रदर्शन कर रहे हैं. यानि कि ये साफ है कि अमेरिका में श्वेत अमेरिकन और अश्वेत अमेरिकन के बीच एक गहरी खाई है, जिसे पाटने की कोशिश तो कई बार हुई है, लेकिन हर बार नाकामयाबी ही हाथ लगी है. हालिया प्रदर्शन भी इसी नाकामयाबी का एक हिस्सा हैं.
तो क्या अमेरिका फिर से काले और गोरे के बीच बंट जाएगा. ये सवाल इसलिए है, क्योंकि हाल के दिनों में ये दूसरी दफा है, जब हत्याओं पर अश्वेतों का गुस्सा इस कदर भड़का हुआ है. अभी हाल ही में केंटकी में भी एक अश्वेत की हत्या हुई थी, जिसके बाद माहौल गर्म होता दिख रहा था. लेकिन स्थानीय प्रशासन ने उसे किसी तरह से शांत कर दिया था. लेकिन ये आग भड़क रही है 15वीं शताब्दी से ही, जब अफ्रीकी मूल के लोग अमेरिका के खेतों और मशीनों में काम करने के लिए अमेरिका पहुंचे. वहां पर ये अमेरिकी नागरिकों के दास थे और उनके साथ तब दासों जैसा ही सलूक किया जाता था. हालात थोड़े तब सुधरे जब अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने अश्वेतों को समान अधिकार देने की वकालत की. हालांकि इसके बाद अमेरिका में गृहयुद्ध जैसे हालात पैदा हुए. लेकिन जीत अश्वेतों की हुई. इसके बाद 1870 के आस-पास अमेरिका ने अपने संविधान में संशोधन किया और अश्वेत लोगों को भी श्वेत लोगों की तरह सारे अधिकार दे दिए. तब से ही श्वेत और अश्वेत के बीच अधिकारों को लेकर लड़ाई चलती रही है, जो अब भी जारी है.
1950 के दशक में मॉर्टिन लूथर किंग के आंदोलन और फिर साल 2008 में बराक ओबामा के अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के बाद लगा था कि स्थितियां थोड़ी सुधरेंगी. मॉर्टिन लूथर किंग ने अश्वेतों को हक दिलाने के लिए लंबा आंदोलन किया. अमेरिका में अश्वेतों के लिए अलग बस की व्यवस्था थी, जिसके खिलाफ एक साल तक मॉर्टिन लूथर किंग ने आंदोलन किया और जेल गए. 28, अगस्त 1963 को मार्टिन लूथर किंग ने अमेरिकी सिविल राइट्स आंदोलन के लिए अपना सबसे यादगार भाषण भी दिया, जिसका शीर्षक था ‘I Have a Dream’ (मेरा एक सपना है). इस आंदोलन के बाद अमेरिका में थोड़े से बदलाव हुए. धीरे-धीरे अमेरिका में गवर्नर और सुप्रीम कोर्ट के जज के पद पर कुछ अश्वेत आए. लेकिन बड़ा बदलाव आया साल 2008 में. अमेरिका की परिभाषा के लिहाज से अश्वेत माने जाने वाले बाराक ओबामा डेमोक्रेटिक प्रत्याशी के तौर पर राष्ट्रपति की रेस में उतरे और जीत भी दर्ज की.
इस जीत ने अमेरिका में अश्वेतों को भरोसा दिलाया कि अब उनका कोई अपना है, जो निर्णायक पद पर बैठा है. उस वक्त करीब 53 फीसदी अश्वेत नागरिकों ने माना था कि ओबामा के राष्ट्रपति बनने से मुल्क में उनकी स्थिति में थोड़ा सुधार होगा. लेकिन हुआ उल्टा. ओबामा के पद संभालने के साथ ही वैश्विक मंदी की आहट से दुनिया के हर देश डरने लगे. कई देशों में इस मंदी की भयंकर मार पड़ी और मंदी के खत्म होने के बाद जब आंकड़ा निकाला गया तो पता चला कि इस आर्थिक मंदी की वजह से अमेरिका के अश्वेत नागरिकों की आमदनी में करीब 30 फीसदी की कमी आई है, जबकि श्वेत नागरिकों की औसत आमदनी महज 11 फीसदी ही कम हुई है. और अब तो अमेरिकी राष्ट्रपति के पद पर ओबामा भी नहीं हैं. अब हैं डॉनल्ड ट्रंप, जो श्वेत हैं.
अमेरिका में अश्वेत समुदाय की आबादी कुल जनसंख्या का करीब 13 फीसदी है. वहीं श्वेतों की आबादी 72 फीसदी के आस-पास है. और इन 72 फीसदी श्वेत लोगों में अधिकांश ऐसे लोग हैं, जो ये मानते हैं कि श्वेत ही श्रेष्ठ हैं और अश्वेत उनके सामने कुछ भी नहीं हैं. ये तो आम लोगों की धारणा है, लेकिन पुलिस भी कम नहीं है. अमेरिका के किसी भी राज्य की पुलिस हो, वो किसी अश्वेत को आसानी से अपराधी बना देती है. वॉशिंगटन पोस्ट का एक आंकड़ा कहता है कि अमेरिका में अश्वेतों की आबादी भलेही 13 फीसदी हो, लेकिन अगर पुलिस रिकॉर्ड में अपराधियों का आंकड़ा देखेंगे तो करीब 25 फीसदी अपराधी अश्वेत समुदाय के ही मिलेंगे. पुलिस को छोड़िए, कई बार अदालतों तक ने भेदभाव किया है और इन सबके बीच अश्वेत आबादी कुछ श्वेत लोगों की सहानुभूति के आधार पर अपने हक के लिए लड़ रही है.
लेकिन क्या अश्वेतों की ये लड़ाई, श्वेत लोगों की सहानुभूति से जीती जा सकेगी. क्या अश्वेतों के साथ श्वेत अगर Black lives matter के पोस्टर भर लेकर शहरों में चक्का जाम कर देंगे तो अश्वेतों को उनका हक मिल जाएगा. और हक तो अब भी मिला हुआ है. संविधान ने तो उन्हें बराबरी का दर्जा दे ही रखा है, इसलिए उन्हें सहानुभूति की ज़रूरत तो कतई नहीं है. और हकीकत ये है कि उन्हें तो किसी चीज की ज़रूरत नहीं है. ज़रूरत है श्वेतों को अपनी मानसिकता में बदलाव की, ज़रूरत है श्वेतों को कि वो अश्वेतों को भी इंसान ही समझें और उनके खिलाफ अपने पुराने पुर्वाग्रहों को दूर करें. अगर ऐसा नहीं होता तो कोरोना की वजह से बुरी तरह से बर्बादी की कगार पर खड़े अमेरिका में एक और गृहयुद्ध होने से कोई नहीं रोक सकता और इसके जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ वो श्वेत लोग होंगे, जो अश्वेतों को दोयम दर्जे का नागरिक मानते हैं.