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Darbaan Review: सवा सौ साल बाद भी नई है इंसानी जज्बात की ये कहानी, सिनेमा की मिट्टी में है साहित्य की महक

कहानी झरिया, धनबाद में रहने वाले नरेन बाबू, उनके परिवार और वफादार नौकर रायचरन की है. रायचरन बचपन से इस परिवार में पला-बढ़ा है, मगर नौकर की तरह नहीं.

इस सीधी-सरल कथा में समय का सफर लंबा है. रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी को वक्त के नए सांचे में ढाल कर तैयार की गई फिल्म दरबान में मानवीय संवेदनाओं और नियति का ताना-बाना है. साहित्य आधारित सिनेमा में आपकी रुचि है तो इसे देखें. उन्हें भी दरबान देखनी चाहिए जो मानते हैं कि मसाला फिल्में ही मनोरंजन करती हैं.

Darbaan

**1/2

Social Drama Literature

निर्देशकः बिपिन नाडकर्णी

कलाकारः शारिब हाशमी, शरद केलकर, रसिका दुग्गल, फ्लोरा सैनी

उत्कृष्ट साहित्य की पहचान यह है कि वह देश-काल की सीमाओं को लांघ जाता है. इसीलिए रवींद्रनाथ टैगोर की 1891 में लिखी कहानी खोकाबाबूर प्रत्याबर्तन (छोटे साहब की वापसी) पर जब लेखक-निर्देशक बिपिन नाडकर्णी 2020 में फिल्म बनाते हैं तो वह सवा सौ साल बाद भी आज की लगती है. देश-काल भले बदलें परंतु सच्चे इंसानी जज्बात गहरी तहों की मिट्टी में दबे बीज जैसे होते हैं. जो नरम-गरम मौसम पाकर अंकुरित हो जाते हैं. भावनाओं की हरियाली अनुकूल हवा-पानी के साथ लहलहा उठती है. बरसों पुराने किरदार समय का पुल पार करके देखने-सुनने वाले के सामने आ खड़े होते हैं. दरबान में शारिब हाशमी कुछ इसी तरह नजर आए हैं. जी5 पर आई यह फिल्म लगभग डेढ़ घंटे की है.

Darbaan Review: सवा सौ साल बाद भी नई है इंसानी जज्बात की ये कहानी, सिनेमा की मिट्टी में है साहित्य की महक

कहानी झरिया, धनबाद में रहने वाले नरेन बाबू (हर्ष छाया), उनके परिवार और वफादार नौकर रायचरन (शारिब हाशमी) की है. रायचरन बचपन से इस परिवार में पला-बढ़ा है, मगर नौकर की तरह नहीं. वह नरेन बाबू के बेटे अनुकूल का भाई, दोस्त और गुरु है. कई कोयला खदानों के मालिक नरेन बाबू सरकार द्वारा खदानों के राष्ट्रीयकरण के फैसले के साथ राजा से रंक बन जाते हैं. अचानक गिरी इस बिजली से सब कुछ उथल-पुथल हो जाता है.

Darbaan Review: सवा सौ साल बाद भी नई है इंसानी जज्बात की ये कहानी, सिनेमा की मिट्टी में है साहित्य की महक

बीस बरस बाद अनुकूल (शरद केलकर) फिर पुरानी संपत्ति और साख के साथ उठ खड़ा होता है और रायचरन को गांव से अपने घर ले आता है. अब अनुकूल की पत्नी और नन्हा बेटा है. गोद में खेलने वाला यही बालक रायचरन का ‘छोटे सरकार’ है. जो उसके साथ खेतों-बागों में घूमते-खेलते एक दिन बरसात में गायब हो जाता है. सवाल उठते हैं कि क्या बच्चा सचमुच खो गया. क्या रायचरन ने उसे चुरा लिया या छुपा दिया. रायचरन और उसकी पत्नी (रसिका दुग्गल) की कोई संतान नहीं है. अनुकूल और उसकी पत्नी (फ्लोरा सैनी) अब क्या करेंगे.

Darbaan Review: सवा सौ साल बाद भी नई है इंसानी जज्बात की ये कहानी, सिनेमा की मिट्टी में है साहित्य की महक

मानवीय भावनाओं के उतार-चढ़ाव वाली इस कहानी में घटनाएं अंत से पहले कई मोड़ों से गुजरती है. समय की लंबी यात्रा यहां है, जिसमें रायचरन जवानी से बुढ़ापे तक पहुंचता है मगर ‘छोटे सरकार’ से उसका स्नेह का रिश्ता और उस पर लगे आरोप चैन नहीं लेने देते. बिपिन नाडकर्णी मूल कहानी के रोमांच को बरकरार रखने में कामयाब रहे मगर इसमें फिल्मी थ्रिल नहीं ला पाए. कहानी में साहित्यिक सादगी और अनु कपूर का नरेशन है. नाडकर्णी इसे थोड़ा घुमाते-फिराते-कसते तो बेहतर होता. इससे रफ्तार भी बढ़ती. मूल कहानी की जमींदारी वाली 19वीं सदी की पृष्ठभूमि को लेखक-निर्देशक ने आधुनिक भारत से बदल दिया और 1970 के शुरुआती वर्षों से कंप्यूटर युग तक ले आए.

Darbaan Review: सवा सौ साल बाद भी नई है इंसानी जज्बात की ये कहानी, सिनेमा की मिट्टी में है साहित्य की महक

ऐसे में समय से कदमताल करता शारिब का किरदार कुछ लड़खड़ाता है. पीरियड फिल्म-सी शुरुआत, आधुनिक सिनेमा तक आ जाती है. दरबान की ताकत इसकी कहानी है और शारिब का परफॉरमेंस सधा हुआ है. उनकी मेहनत नजर आती है. शारिब मसाला फिल्मों का चेहरा नहीं बन सके हैं परंतु कंटेंट सिनेमा में बढ़ने की कोशिशें साफ नजर आती है. उन्हें सही समय और बेहतर भूमिकाओं की जरूरत है. दरबान के केंद्र में शारिब हैं और अन्य कलाकारों का उन्हें अच्छा सहयोग मिला है. फिल्म का गीत-संगीत अच्छा है.

Darbaan Review: सवा सौ साल बाद भी नई है इंसानी जज्बात की ये कहानी, सिनेमा की मिट्टी में है साहित्य की महक

भारतीय भाषाओं के साहित्य में सार्थक और मनोरंजक कहानियों की कमी नहीं है. जरूरत है उन्हें सही ढंग से पढ़े-समझे जाने और सुलझे अंदाज में पर्दे पर उतारने की. हिंदी सिनेमा के लोग बीते कई दशकों से यह काम करने में बुरी तरह नाकाम रहे. वेब का संसार संभवतः साहित्यिक रचनाओं की किस्मत बदल सकता है. फिल्मी लेखकों-निर्देशकों के सामने साहित्य को समय के अनुरूप स्क्रीन पर रूपांतरित करने की चुनौती है. दरबान इस चुनौती को स्वीकार करती है. 2018 में निर्देशक देब मेढ़कर ने भी टैगोर की कहानी काबुलीवाला को बाइस्कोपवाला (डैनी, गीतांजलि थापा) में ढाला था.

Darbaan Review: सवा सौ साल बाद भी नई है इंसानी जज्बात की ये कहानी, सिनेमा की मिट्टी में है साहित्य की महक

बांग्ला के ही दिग्गज शरतचंद्र के उपन्यासों को आज भी पर्दे पर उतारा जा रहा है. समस्या यह भी है हिंदी फिल्म उद्योग के अधिकतर फिल्मकार और अभिनेता कथा सम्राट प्रेमचंद के अलावा किसी और नाम से परिचित नहीं होते. प्रेमचंद को भी उन्होंने ठीक से पढ़ा नहीं होता. दूसरी समस्या पटकथा लेखकों की है. वे हिंदी पट्टी की दोयम दर्जे की क्राइम-सेक्स आधारित कहानियों और विदेशी फिल्मों से चुराए आइडियों को रंग-रोगन बदल-बदल कर परोसने से अधिक मेहनत नहीं करना चाहते. इसके बावजूद दरबान जैसी फिल्म भरोसा दिलाती है कि ठहरे हुए फ्रेम में तस्वीर को बदलने की कोशिशें भी हो रही हैं.

यह भी पढ़ें: Bigg Boss 14 Finale: क्या इस हफ्ते खत्म हो जाएग बिग बॉस का ये सीजन? ये है सच्चाई क्या आप जानते हैं, जब सना खान ने फिल्म इंडस्ट्री को अलविदा कहा तब एक फिल्म के लिए उनकी फीस क्या थी?

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