जब भी राजस्थान की बात हो तो बड़े बड़े किले...सजे धजे ऊंट और दाल बाटी चूरमा की तस्वीर सामने आ जाती है. लेकिन इन सबके अलावा एक और ऐसी चीज है जो राजस्थान की पहचान है. और वो है राजस्थान की मिट्टी में रचा बसा गीत - केसरिया बालम. सिर्फ पहचान ही नहीं बल्कि ये राजस्थान की संस्कृति का प्रतीक भी अब बन चुका है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस गीत को वो पहचान जो आज है वो दिलाने का श्रेय किसे जाता है? किसने सबसे पहले इस  गीत को गाकर अमर कर दिया? 

अपनी इस रिपोर्ट में हम आपको इसी गाने को साकार करने वालीं उस आवाज़ के बारे में बताएंगे जिन्होंने केसरिया बालम गाने को दुनिया के लिए राजस्थान की तरफ से न्योता बना दिया. 

अल्लाह जिलाई बाई ने पहली बार गाया था ये गाना 

जी हां...वो शख्सियत अल्लाह जिलाई बाई ही थीं जिन्होंने पहली बार बीकानेर के महाराजा गंगासिंह के दरबार में केसरिया बालम गीत को गाया था. महाराज गंगासिंह ने पहले विश्वयुद्ध में अंग्रेजों की तरफ से हिस्सा लिया था और ‘गंगा रिसाला’ नाम से एक सेना बनाई थी जिसमें ऊंट ही शामिस थे. इस सेना ने जो  पराक्रम दिखाया उसी के चलते बाद में इस टुकड़ी को बीएसएफ में भी शामिल कर लिया गया. अल्लाई जिलाई बाई का जन्म 1 फरवरी 1902 को बीकानेर राजस्थान में हुआ था. और इनके निधन के बाद इन्हें राजस्थान रत्न सम्मान देने की घोषणा भी की गई. 

महाराज गंगासिंह ने पहचाना था अल्लाह जिलाई बाई का हुनर

वो महाराज गंगासिंह ही थे जिन्होंने अल्लाह जिलाई बाई का हुनर तब पहचान लिया था. जब वो महज़ 10 साल की ही थीं. महज़ तेरह वर्ष की आयु में ही इन्होने राजगायिका की पदवी प्राप्त कर ली थी. उनके लिए महाराज ने पहले उस्ताद हुसैन बख्श और बाद में अच्छन महाराज को नियुक्त किया था. जिन्होंने बाई जी को संगीत में तराशा. समय के साथ वो गीत संगीत में परिपक्व होती गई. और देखते ही देखते राजस्थान की आवाज़ बन गई.  मांड, ठुमरी, ख्याल और दादरा जैसी सभी शैलियों में गाना गाने वालीं अल्लाह जिलाई बाई ने जब केसरिया बालम पहली बार गाया तो मानो राजस्थान की बंजर मिट्टी में जान आ गई.

समय के साथ बदल रहा है स्वरूप

काफी समय बदल चुका है लेकिन ये गाना आज भी राजस्थान से अटूट रूप से जुड़ा है. हालांकि समय के साथ इसमें बदलाव होते रहते हैं और वक्त की छाप इसमें खूब दिखती है