चुनावी समर जारी है और इस दौरान खर्चे को लेकर भी आंकड़े आने लगे हैं. अब तक सभी आंकड़ों से साफ है कि इस बार का लोकसभा चुनाव देश के इतिहास में सबसे महंगा चुनाव होने जा रहा है. सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज (सीएमएस) का अनुमान है कि 11 अप्रैल से 19 मई तक सात चरणों में हो रहे इस चुनाव में 50,000 करोड़ रुपये का खर्चा हो सकता है. ये रकम पिछले लोकसभा चुनाव के खर्चे से करीब 40 फीसदी ज्यादा है.
भारत में होने वाले आम चुनाव एक ऐसे महाकुम्भ की तरह है जिसे संपन्न कराने की जिम्मेदारी अपने आप में बहुत कठिन है. मगर चुनाव-दर-चुनाव मजबूत होता भारतीय लोकतंत्र काबिल-ए-तारीफ है. हम इस सीरीज में अब तक हुए महत्वपूर्ण आम चुनावों में भारतीय लोकतंत्र की निष्ठा और उसकी जिम्मेदारियों का एक खाका तैयार कर रहे हैं. आज ज़िक्र होगा लोकसभा चुनाव में होने वाले खर्चों और उनके आंकड़ों की.
पिछले लोकसभा चुनाव में खर्च हुई रकम 35,000 करोड़ रुपये के पार थी. 'कारनीज एंडोमेंट फोर इंटरनेशनल पीस थिंकटैंक' में सीनियर फेलो और दक्षिण एशिया कार्यक्रम के निदेशक मिलन वैष्णव के मुताबिक, 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव और सीनेट चुनावों में 46,211 करोड़ रुपए (650 करोड़ डॉलर) खर्च हुए थे. अगर सीएमएस के आंकड़े सही साबित हुए तो 2019 का लोकसभा चुनाव दुनिया का सबसे खर्चीला चुनाव साबित होगा.
ऐसे अंदेशों को रोकने के लिए चुनाव आयोग ने पहले से ही गाइडलाइन जारी कर दी है. धनबल के आधार चुनाव को प्रभावित होने से रोकने और चुनाव आयोग ने प्रचार के दौरान कितना पैसा एक उम्मीदवार खर्च कर सकता है इसको लेकर सख्त नियम बनाए हैं. चुनाव आयोग ने अब यह तय कर दिया है कि एक उम्मीदवार कितने रुपये खर्च कर सकता है.
चुनाव आयोग की गाइडलाइन के मुताबिक एक उम्मीदवार लोकसभा चनाव में अधिकतम 54 लाख रुपये से 70 लाख रुपये तक खर्च कर सकता है. उसका खर्च उस राज्य पर भी निर्भर करता है जहां से वह चुनाव लड़ रहा है. अरुणाचल प्रदेश, गोवा और सिक्किम को छोड़कर सभी राज्यों में एक उम्मीदवार अधिकतम 70 लाख रुपये खर्च कर सकता है. अरुणाचल प्रदेश, गोवा और सिक्किम में लोकसभा के चुनाव में हिस्सा ले रहे उम्मीदवार 54 लाख रुपये तक खर्च कर सकते हैं. दिल्ली में चुनाव में खर्च की सीमा 70 लाख ही है, जबकि अन्य केंद्र शासित राज्यों में चुनावी खर्च की सीमा 54 लाख रुपये रखी गई है. अन्य राज्यों के विधानसभा चुनाव के लिए यह सीमा 20 लाख रुपये से 28 लाख रुपये के बीच रखी गई है.
इन खर्चों में सियासी पार्टी की तरफ के किया गया खर्च या एक उम्मीदवार के अभियान के लिए एक समर्थकों द्वारा खर्च किया गया धन शामिल होगा. लेकिन इसमें पार्टी के कार्यक्रम के प्रचार के लिए किसी पार्टी या किसी पार्टी के नेता की तरफ से किए गए खर्च को नहीं जोड़ा जाएगा है. इन दिशानिर्देशों को अन्यथा लेने और सीमित खर्चों से ज्यादा खर्च करने पर आयोग की तरफ कार्रवाई का भी प्रावधान हैं.
कैसे पालन किया जाए दिशानिर्देश
उम्मीदवारों को एक अलग खाता रखना होता है और कानून के तहत उसमें चुनाव खर्च को दर्ज करना होता है. खर्च की गलत जानकारी और तय खर्च सीमा से अधिक खर्च करना जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 10ए के तहत तीन साल तक के लिए अयोग्यता का कारण बन सकता है.
सभी पंजीकृत राजनीतिक दलों को लोकसभा चुनावों के पूरा होने के 90 दिनों के भीतर अपने चुनाव खर्च का एक बयान चुनाव आयोग को देना होता है. सभी उम्मीदवारों को चुनाव पूरा होने के 30 दिनों के भीतर अपने खर्च का विवरण मतदान कक्ष में प्रस्तुत करना होगा.
अब तक के लोकसभा चुनाव में हुए इतने खर्च
सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1952 में हुए पहले आम चुनाव का खर्च 10 करोड़ से भी कम आया था, यानी प्रति मतदाता पर करीब 60 पैसे का खर्च. यह ठीक है कि उस समय यह रकम मामूली नहीं थी, लेकिन गैर-सरकारी आंकड़ों के मुताबिक आज विभिन्न दलों की ओर से 50-55 करोड़ रुपए मात्र एक संसदीय सीट में बहा दिए जाते हैं.
शुरुआती दो-तीन आम चुनावों तक दिग्गज उम्मीदवार भी बैलगाड़ियों, साइकलों, ट्रकों पर प्रचार करते देखे जा सकते थे. फटेहाल नेताजी की आर्थिक मदद खुद कार्यकर्ता किया करते थे. लेकिन आज के नेता हेलीकॉप्टरों या निजी विमानों से सीधे रैलियों में उतरते हैं और करोड़ों रुपए खर्च करके लाखों लोगों की भीड़ जुटाते हैं.
पहले तीन आम चुनावों को कराने में 10 करोड़ रुपये के बराबर या उससे कम खर्च हुआ था. जबकि, 1984-85 में आठवें आम चुनाव तक यह खर्च 100 करोड़ रुपये से कम था. 1996 में 11वें आम चुनाव के दौरान यह पहली बार 500 करोड़ रुपये को पार कर गया और 2004 में 14वें आम चुनाव के दौरान 1,000 करोड़ रुपये से अधिक हो गया. 2014 के आखिरी लोकसभा चुनावों में 3,870 करोड़ रुपये का खर्च हुआ जो 2009 में 15वें आम चुनाव के लिए किए गए खर्च से तीन गुना अधिक था.