Rupee vs Dollar: भारतीय रुपये में हालिया गिरावट ने एक बार फिर अर्थव्यवस्था और वित्तीय बाजारों को लेकर बहस तेज कर दी है. पहली बार अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपया 91 के स्तर के पार चला जाना अपने-आप में एक बड़ा मनोवैज्ञानिक संकेत है, जिसने आम निवेशकों से लेकर नीति-निर्माताओं तक की चिंताओं को बढ़ाया है. इस साल यानी 2025 में रुपया करीब 6 प्रतिशत तक नीचे चला गया है और यह एशिया में सबसे खराब परफॉर्म करने वाली करेंसी बन गई है. 

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यह गिरावट ऐसे समय पर सामने आई है, जब भारतीय शेयर बाजार भी लगातार दबाव में हैं और विदेशी निवेशकों की बिकवाली ने बाजार के सेंटिमेंट को कमजोर किया है.

रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) की ओर से रुपये को संभालने के लिए समय-समय पर हस्तक्षेप, विदेशी मुद्रा बाजार में कदम और दिसंबर 2025 में 25 बेसिस प्वाइंट की रेपो रेट कटौती के बावजूद घरेलू मुद्रा पर दबाव बना हुआ है. हालांकि, अर्थशास्त्रियों और बाजार विशेषज्ञों का मानना है कि इस गिरावट को घबराहट के तौर पर देखने की बजाय इसे एक स्वाभाविक और क्रमिक समायोजन के रूप में समझना चाहिए.

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क्यों टूट रहा रुपया?

एक्सिस बैंक के चीफ इकोनॉमिस्ट और प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अंशकालिक सदस्य नीलकंठ मिश्रा के अनुसार, आने वाले समय में रुपये में और कमजोरी देखने को मिल सकती है, लेकिन यह किसी बड़े संकट का संकेत नहीं है. उनका कहना है कि आरबीआई को किसी एक तय स्तर को बचाने की कोशिश करने के बजाय बाजार को स्वाभाविक रूप से संतुलन बनाने देना चाहिए.

नीलकंठ मिश्रा के मुताबिक, भारत के पास करीब 685–690 अरब डॉलर का मजबूत विदेशी मुद्रा भंडार है, जो देश को बाहरी झटकों से बचाने के लिए पर्याप्त है. उन्होंने यह भी कहा कि पहले डॉलर के मुकाबले रुपये को 83 के स्तर पर रोकने की कोशिश और ‘फॉरवर्ड मार्केट’ में जरूरत से ज्यादा दखल अब जाकर समस्या बन रही है, जिसका असर मौजूदा गिरावट के रूप में दिख रहा है.

अभी और गिरेगी भारतीय करेंसी 

विशेषज्ञों का मानना है कि रुपये के कमजोर होने के पीछे कई वैश्विक और घरेलू कारण हैं. एक ओर अमेरिका में मजबूत डॉलर, ऊंची ब्याज दरें और वैश्विक निवेशकों का सुरक्षित परिसंपत्तियों की ओर रुझान है, तो दूसरी ओर विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) की भारतीय बाजार से निकासी ने भी दबाव बढ़ाया है. इसके अलावा, सट्टा गतिविधियों और वैश्विक अनिश्चितताओं ने मुद्रा बाजार में अस्थिरता को और बढ़ा दिया है. मिश्रा का अनुमान है कि जून 2027 तक रुपया 92 से 94 रुपये प्रति डॉलर के दायरे तक जा सकता है, लेकिन इसे भारत की आर्थिक कमजोरी के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए.

रुपये के लिए क्यों चुनौती?

उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि मूल रूप से भारतीय अर्थव्यवस्था और रुपये के लिए कोई गंभीर चुनौती नहीं है. अमेजन, माइक्रोसॉफ्ट जैसी वैश्विक कंपनियों की ओर से भारत में निवेश प्रतिबद्धताएं, प्रबंधनीय भुगतान संतुलन और मजबूत घरेलू मांग इस बात के संकेत हैं कि देश की आर्थिक बुनियाद मजबूत बनी हुई है.

अमेरिका-भारत ट्रेड डील को लेकर भी नीलकंठ मिश्रा का मानना है कि भारत को जल्दबाजी में किसी तरह की रियायतें नहीं देनी चाहिए, खासकर तब जब अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में शुल्क से जुड़े मामलों पर फैसला आने वाला है. कुल मिलाकर, विशेषज्ञों की राय में रुपये की मौजूदा गिरावट चिंता का विषय जरूर है, लेकिन यह किसी बड़े आर्थिक संकट का संकेत नहीं है, बल्कि वैश्विक परिस्थितियों और नीतिगत फैसलों के बीच चल रही एक सामान्य और नियंत्रित प्रक्रिया का हिस्सा है.