Multidimensional Poverty Index: नीति आयोग ने साल 2005-06 के बाद से देश में बहुआयामी गरीबी (Multidimensional Poverty) का डेटा जारी किया है. इस डेटा में नीति आयोग ने बताया कि  मोदी सरकार (Modi Government) के नौ साल के कार्यकाल के दौरान देश में 24.82 करोड़ लोग बहुआयामी गरीबी (Multidimensional Poverty) से बाहर आ गए हैं. डेटा के मुताबिक 2013-14 में 29.17 फीसदी (अनुमानित) लोग अत्यंत गरीब थे जिनकी संख्या घटकर 2022-23 में 11.28 फीसदी (अनुमानित) रह गई है. पर अर्थव्यवस्था के जानकार नीति आयोग के बहुआयामी गरीबी में कमी वाले डेटा पर सवाल खड़े कर रहे हैं. 


नीति आयोग के डेटा पर उठ रहे सवाल 


योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष डॉ एन सी सक्सेना ने एबीपी लाइव से बात करते हुए कहा, 'बहुआयामी गरीबी (Multidimensional Poverty) का आइडिया तो अच्छा है पर सवाल उठता है कि हम डेटा कहां से ला रहे हैं.' उन्होंने कहा कि, डेटा जुटाने के तीन प्रकार के सोर्स हैं जिसमें जनगणना (Census), नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (NSSO)और नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे शामिल है. पर ये तीनों ही आज की तारीख में बंद है. 2021 में जनगणना हुआ नहीं, एनएसएसओ का डेटा 2011-12 के बाद जारी ही नहीं किया गया और नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे को ही सस्पेंड कर दिया गया. ऐसे में तो डेटा तो है ही नहीं. एन सी सक्सेना ने कहा, ' सर्वे में खुद लिखा है कि डेटा हमारे पास नहीं है ऐसे में गरीबी के कम होने की दर जो पहले थी उसे ही हमने मान लिया है. ऐसे में प्रश्न उठता है कि पुराने दर से जो गरीबी गिर रही थी उसमें कमी आई है या बढ़ गई है इसकी कोई सही जानकारी नहीं है ऐसे में नीति आयेग के बहुआयामी गरीबी का डेटा बोगस है.' 


देश में खपत का नहीं है कोई डेटा 


एन सी सक्सेना ने बताया कि कुपोषण बहुआयामी गरीबी का बड़ा हिस्सा है.  नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक देश में 35 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं. जबकि जिलों से डेटा आता है वो केवल 8 फीसदी कुपोषित दिखाते हैं. ऐसे में  जिलों के डेटा का कोई आधार नहीं है. उदाहरण के लिए उन्होंने बताया कि 2011 में जनगणना किया गया जब ये पता लगा कि उत्तर प्रदेश में केवल 25 फीसदी घरों में टायलेट्स हैं जबकि यूपी सरकार तब कह रही थी कि 90 फीसदी घरों में टायलेट्स है. 2011 में जनगणना का डेटा जारी किया गया तब यूपी सरकार की बड़ी फजीहत हुई थी. ऐसे में जिलों के डेटा का कोई आधार नहीं है. एन सी सक्सेना ने कहा कि पहले खपत आधारित डेटा के आधार पर देश में गरीबी का पता लगाया जाता था. पर 2011-12 के बाद से खपत का भी कई डेटा नहीं है और जो डेटा आता है तो उसे दबा लिया जाता है. 2016-17 में आंकड़ा जारी हुआ तो उसमें पाया गया कि गरीबी बहुत बढ़ गई लेकिन उन्होंने वापस ले लिया गया.  


MPI गरीबी मापने का विकल्प नहीं 


जाने माने अर्थशास्त्री जीन ड्रेज (Jean Drèze) ने भी दि टेलीग्रॉफ से बात करते हुए बहुआयामी गरीबी इंडेक्स के इस्तेमाल पर सवाल खड़ा किया है. उन्होंने कहा कि बहुआयामी गरीबी इंडेक्स में शॉर्ट टर्म पर्चेजिंग पावर (Short Term Purchasing Power) को शामिल नहीं किया जाता है. ऐसे में ये जरुरी है कि रियल वेज (Real Wage) समेत दूसरी जानकारियों के साथ एमपीआई डेटा को समझने का प्रयास करें. उन्होंने कहा कि गरीबी अनुमानों को मापने के लिए एमपीआई डेटा लंबे समय से अटके उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षणों का पूरक हो सकता है, लेकिन उनका ये विकल्प नहीं है. 


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