नई दिल्ली: तीन साल पहले मध्य प्रदेश में दिल्ली की ही तरह किसान आंदोलन हुआ था. तब इस आंदोलन को कवर करने वाले मीडिया में किसान चेहरों में सिर्फ पुरुषों के चेहरे दिखाई दिए थे. इस बार भी हर तरफ किसानों के नाम पर अधिकतर पुरुष चेहरे नजर आ रहे हैं. पर क्या आंदोलन या प्रदर्शन का कोई फेमिनिस्ट इश्यू है? बिल्कुल है. चूंकि हर घटना का एक स्त्री पक्ष भी होता है. भारत के किसानों में महिलाओं की संख्या बहुत बड़ी है, पर किसान कहने पर हमारे दिमाग में सिर्फ आदमी की आकृति ही उभरती है.

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यह कोई कम महत्वपूर्ण आंकड़ा नहीं है कि देश के कृषि क्षेत्र में आर्थिक रूप से सक्रिय 80% महिलाएं काम करती हैं और खेतों में काम करने वाले लोगों में महिलाओं की हिस्सेदारी 33% है. सेल्फ इंप्लॉयड किसानों में उनकी हिस्सेदारी 48% है. यह ऑक्सफोम की रिपोर्ट कहती है. इसके बावजूद खेती की जमीन पर उनका नियंत्रण सिर्फ 13% है. महिला किसानों के एक संगठन महिला किसान अधिकार मंच की एक रिपोर्ट कहती है कि 2012 से 2018 के दौरान महाराष्ट्र के मराठवाड़ा और विदर्भ जिलों की 40% महिला किसानों, जिनके पतियों ने कर्जे के आत्महत्या की, को अब तक अपनी खेती की जमीन का स्वामित्व नहीं मिला.

पति की आत्महत्या के बाद इन महिलाओं को खेतों के अलावा परिवार की भी जिम्मेदारी उठानी पड़ती है. लेकिन खेती की जमीन न होने के कारण उन्हें न तो सरकारी लाभ मिलते हैं और न ही सामाजिक सुरक्षा. अक्सर उन्हें बैंक से ऋण नहीं मिल पाते. सबसिडी पर उर्वरक और फसल खराब होने पर सरकारी बीमा भी नहीं मिल पाता. सरकारी कागजों में वे किसान नहीं होतीं. इससे कृषि क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं की सही संख्या को आंकना मुश्किल होता है.

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एक सच और भी है जिसकी तरफ ज्यादातर ध्यान जाता ही नहीं. पुरुषों के मुकाबले किसान महिलाओं को ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है. उनकी दिनचर्या से घरेलू काम कम नहीं होते, बल्कि वे घर के तमाम काम भी करती हैं. इसके अलावा खेती में शारीरिक श्रम भी बहुत ज्यादा है- जमीन तैयार करना, बीज चुनना, रोपाई करना, खाद डालना, फिर कटाई, मढ़ाई वगैरह में बहुत मेहनत होती है. 1991 में संयुक्त राष्ट्र की खाद्य एवं कृषि संगठन की रिपोर्ट मोस्ट फार्मर्स इन इंडिया आर विमेन में एक बहुत तल्ख बात कही गई थी. उसमें कहा गया था कि हिमालय क्षेत्र के गांवों में एक साल में एक हेक्टर खेत में बैलों की जोड़ी 1,064 घंटे काम करती है, पुरुष 1,212 घंटे काम करते हैं और औरतें 3,485 घंटे काम करती हैं.

लेकिन दिलचस्प है कि खेती से जुड़े फैसले लेने में उन्हें बराबरी से शामिल नहीं किया जाता. खेती में भी अक्सर वे सहायक कामों में लगाई जाती हैं और अक्सर वहां भी पुरुषों के मुकाले कम कमाती हैं. इसकी एक वजह यह भी है कि उन्हें पुरुषों के मुकाबले कमजोर समझा जाता है. जेंडर को लेकर जो पूर्वाग्रह कायम हैं, उसका सीधा असर पड़ता है. तिस पर, दलित और आदिवासी महिला किसानों की स्थिति और बदतर है. दूसरी महिलाओं के मुकाबले वे सामाजिक और आर्थिक स्तर पर ज्यादा अलग-थलग हैं. ऐक्शन एड जैसा अंतरराष्ट्रीय संगठन गरीबी उन्मूलन अभियान से जुड़ा हुआ है. उसके आंकड़े कहते हैं कि 70% दलित महिलाओं के पास खेती की जमीन नहीं है. इसके अलावा जाति के आधार पर उन्हें अलग से भेदभाव झेलना पड़ता है. इस भेदभाव की वजह से अपनी जमीन पर उन्हें अधिकार नहीं मिलता. उनकी उपज को खरीदार नहीं मिलते. उनकी जीविका पर असर होता है.

यूं खेती में महिलाओं की संख्या पिछले पच्चीस सालों में बढ़ी है. फेमिनिस्ट इकोनॉमिक्स की एक टर्म है, फेमिनाइजेशन ऑफ एग्रीकल्चर. यानी कृषि क्षेत्र का स्त्री पक्ष. जब नब्बे के दशक में आर्थिक उदारीकरण के बाद कृषि गतिविधियां कम हुईं और पुरुषों ने ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों में पलायन शुरू किया तो खेती का भार गांव में छूट जाने वाली औरतों पर पड़ा. 2013 में एक अंग्रेजी दैनिक में छपी खबर में बताया गया था कि 2001 से 2011 के बीच 77 लाख किसानों ने खेती करना छोड़ दिया था. इसके बाद 2015 में प्रवास पर एक वर्किंग ग्रुप बनाया गया जिसने 2017 में एक रिपोर्ट दी. इस रिपोर्ट में कहा गया था कि गांवों से शहरों में करीब 10 से 20 करोड़ लोगों ने पलायन किया है. इनमें ज्यादा संख्या पुरुषों की है. इसी से कृषि का फेमिनाइजेशन हुआ. 2011 की जनगणना कहती है कि 2001 से 2011 के बीच महिला खेतिहर मजदूरों की संख्या में 24% का इजाफा हुआ. यह 4 करोड़ 95 लाख से बढ़कर 6 करोड़ 16 लाख हो गई. अगर लगभग 9 करोड़ 80 लाख महिलाएं खेती से जुड़े रोजगार करती हैं तो उनमें से 63 प्रतिशत खेतिहर मजदूर हैं यानी दूसरे के खेतों में काम करती हैं.

इसे पुरुषों का फ्रीडम भी कहा जा सकता है, जोकि महिलाओं के अनफ्री लेबर की बनिस्पत हासिल हुआ. अनफ्री लेबर का मतलब है, शोषणकारी श्रम संबंध. जब मजदूरों के जबरन श्रम कराया जाता है. खास तौर से श्रम सघन क्षेत्रों में, जैसे कृषि, निर्माण और मैन्यूफैक्चरिंग. कृषि के फेमिनाइजेशन से महिलाओं के अनफ्री लेबर को बढ़ावा मिला. इसी के आधार पर पुरुष शहरों में जाने को आजाद हुए. गांवों के मुकाबले शहरों में थोड़ा ज्यादा कमाने लगे और गांवों में होने वाले सामाजिक भेदभाव से भी बच सके. शहरों में पलायन करने के लिए अगर उन्होंने गांवों में साहूकार से उधार लिया तो बदले में उनके परिवार की स्त्रियों को उसे चुकाने के लिए मजबूर होना पड़ा. अक्सर ऐसी महिलाओं को बाजार में तय मजदूरी से कम मजदूरी मिलती है, कई बार देर से मजदूरी मिलती है या किश्तों में मजदूरी मिलती है. ऐसा भी होता है कि कई बार उन्हें अपने परिवार का गुजारा चलाने के लिए साहूकार की दया पर निर्भर रहना पड़ता है.

हां, फेमिनाइजेशन ने कई मायनों में महिलाओं को मजबूत भी किया है. उनकी कुशलता और आत्मविश्वास बढ़ा है. उन्हें संगठित होने का महत्व समझाया है. सरकारों ने भी इस बात को समझा है कि उन्हें प्रो विमेन पॉलिसी बनानी चाहिए. पर श्रम बाजार में महिलाओं का दाखिला आपको चेतावनी भी देता है. जरूरत इस बात की है कि उनका स्वामित्व खेती की जमीनों पर बढ़ाया जाए. घर के बाहर काम के लिए निकलना महिलाओं के लिए कोई ‘टाइम पास’ नहीं है, जैसा कि आम तौर पर देखा जाता है.

इधर किसान आंदोलन जारी है, उधर महिलाएं एक अदृश्य लड़ाई लड़ रही हैं. उन्हें महिला और फिर किसान, दोनों स्थितियों के साथ संघर्ष करना पड़ता है. इसीलिए उनकी आवाज को बदलाव के आह्वान का हिस्सा बनाया जाना चाहिए. और देखा जाना चाहिए कि इस आंदोलन में उनका कितना महत्व है.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)