दो दिनों के शानदार आयोजन के साथ ही जी20 के शिखर सम्मेलन की समाप्ति हो गयी. भारत ने इस दौरान अपनी सांस्कृतिक-ऐतिहासिक धरोहर को खूब दिखाया और कई ऐतिहासिक फैसले भी इस शिखर सम्मेलन में लिए गए. एक ओर अफ्रीकन यूनियन को सदस्यता दी गयी और जी20 अब जी21 हो गया. रूस और चीन की आपत्ति और विरोध का खतरा था, लेकिन भारत ने सर्व-सहमति से दिल्ली घोषणापत्र जारी कर दिया. इस सम्मेलन की सबसे खास बात भारत-अरब-यूरोप कॉरीडोर की घोषणा थी. सैकड़ों अरब डॉलर की इस परियोजना को चीन के बीआरआई इनीशिएटिव का जवाब भी माना जा रहा है और उसके विस्तारवादी रवैए को रोकने की काट भी. 


चीनी विस्तारवाद की काट है भारत-अरब-यूरोप कॉरीडोर


सबसे पहले तो हमें यह समझना चाहिए कि जी20 का जिस तरह भारत ने सफल आयोजन किया और पूरी दुनिया को एक नया नैरेटिव दिया, वही अपने आप में बेहद मानीखेज और स्वागत योग्य है. भारत-अरब-यूरोप कॉरिडोर बिल्कुल ही बीआरआई (बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव) के चीनी दांव को काटने के लिए ही प्रस्तावित किया गया है. हम सभी जानते हैं कि कोई भी देश युद्ध के साथ विकास नहीं कर सकता. तकनीक का युग है, हरेक देश अपना विकास करना चाहता है. यह जो कॉरिडोर का कॉन्स्पेट है, यह चीन को काउंटर करने के लिए ही लाया गया है.



पुराने जमाने को देखें तो इसे मसाला-मार्ग या स्पाइस-वे भी कह सकते हैं. हमारे यहां जो मसालों का व्यापार होता था, भारत से यूरोप जो हम जाते थे, इस रास्ते का भी इस्तेमाल करते थे. अब चूंकि उसी रास्ते में चीन और पाकिस्तान भी हैं, तो वह कहीं न कहीं बाधक बनते थे, इसके साथ ही अमेरिका की भी मंशा कहीं न कहीं इसी पक्ष में थी. कोरोना के बाद सबने चूंकि वैश्विक सप्लाई सिस्टम का फेल्योर देखा है, चीन की भूमिका देखी है और सभी उसके प्रति संदेह से भरे हैं, जबकि उसी दौर में सबने भारत की ‘वैक्सीन डिप्लोमैसी’ भी देखी है और दुनिया का भारत के प्रति भरोसा भी बढ़ा है. यह रूट जो है, वह मेडिटेरेनियन से होते हुए इजरायल के रास्ते हम यूरोप में घुसेंगे और यह जी20 की सबसे बड़ी यूएसपी है.


आर्थिक और राजनीतिक दोनों निहितार्थ



राजनीति ही वह माध्यम है जिसके जरिए सभी देश एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं. आर्थिक ताकत बनने के लिए भी राजनीतिक स्थिरता जरूरी है. भारत ने जी20 शिखर सम्मेलन से कई तरह के राजनीतिक निहितार्थ के संकेत भी दिए हैं. चीन ने जिस तरह से अपना विस्तारवादी रवैया बार-बार दिखाया है, डेट-ट्रैप में देशों को फंसाया है, केवल अपने हितों को पालता-पोसता है, वह भारत बिल्कुल नहीं करता. हमारा रवैया कभी आक्रामक या धोखे वाला नहीं रहा है. हम बहुत धीमे लेकिन सधे कदमों से वैश्विक रंगमंच पर अपने आगमन की घोषणा कर रहे हैं.


अफ्रीकन यूनियन का जुड़ना ऐतिहासिक


अफ्रीकी यूनियन के आने के बाद भी चीन की तकलीफ बढ़ी है. इसको समझने के लिए जरा हमें संयुक्त राष्ट्र के गठन पर भी सोचना होगा. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जिस तरह संयुक्त राष्ट्र का निर्माण हुआ, उसमें भारत का वीटो पावर न होना कहीं न कहीं भारत के हितों के खिलाफ है. हम दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाले देश हैं, सबसे बड़े लोकतंत्र हैं, लेकिन हमारे हितों के लिए कोई बोलने वाला नहीं है. अफ्रीकन यूनियन को साथ लाकर, यूरोपीय यूनियन को सहेज कर, भारत कहीं न कहीं संयुक्त राष्ट्र के बरअक्स दुनिया के देशों का समर्थन भी चाहता है. अब जी20 में लगभग 70 देश शामिल हैं, तो यह भारत की कूटनीति का भी असर है कि हम अब दुनिया से अपने लिए अलग से समर्थन मांग रहे हैं.


हम 1.40 अरब की आबादी वाले देश हैं. सबसे बड़ा बाजार भी. यह जो कॉरिडोर है, उससे हमारा और यूरोप का जो व्यापार है, वह कम से कम 40 फीसदी आगे बढ़ेगा. मिडिल ईस्ट भी खुद को बदल रहा है. वह भी तेल पर अपनी निर्भरता खत्म करना चाहता है. वह भी तकनीक में आगे बढ़ना चाहता है, हरित ऊर्जा के क्षेत्र में उतरना चाहता है. भारत, मध्य पूर्व और यूरोप, तीनों के ही हित में ये कॉरीडोर है और इसीलिए बात इतनी आगे भी बढ़ी है.


भारतीय कूटनीति नए दौर में


अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता. पीएम मोदी पहले भी कह चुके हैं कि भारत न किसी से आंखें झुकाएगा, न किसी को दिखाएगा, बल्कि आंखें मिलाकर बात करेगा. इसलिए, हम किसी गुट में शामिल नहीं हुए हैं. 2026 में अगर अमेरिकी जी20 की अध्यक्षता करता है तो यह इस कारण नहीं कि हम उसके गुट में हैं, बल्कि इसलिए कि हमारे हित अब हमारे लिए सर्वोपरि हैं. भारतीय विदेशनीति का एक तटस्थता वाला जो दौर है, वह अब भी इसका आधार है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण रूस-यूक्रेन युद्ध है, जहां हमने न तो रूस का पक्ष लिया, न ही यूक्रेन का. हां, हमने हमेशा अपनी यह स्थिति साफ रखी कि बातचीत से ही हरेक समस्या का हल निकालना चाहिए.


जहां तक चीन का सवाल है, तो वह ऐसा ड्रैगन है, जो देखने में ही विशाल है, लेकिन भीतर से खोखला हो चुका है. तानाशाही होने और राजनीतिक दलों की व्यवस्था न होने की वजह से उनके यहां जो आंतरिक संघर्ष है, वह सतह पर है. उस पर उनकी विस्तारवादी नीति, उपनिवेशवादी रवैया अब बैकफायर कर रहा है. जहां भी डेमोक्रेटिक वैल्यूज होंगे, जहां नॉलेज होगा, वही देश आगे बढ़ेगा और यह कहने में कोई दिक्कत नहीं है कि निकट भविष्य में चीन भी यूएसएसआर की तरह टूट सकता है.


भारत की विदेशनीति और होगी आक्रामक


हमारी यह 75 वर्षों की यात्रा है. हम अब अपनी विदेशनीति में अपने हितों को सर्वाधिक प्राथमिकता देते हैं. अगर दुनिया आज हम पर भरोसा कर रही है, तो ये जाहिर है कि हमलोगों की आंतरिक नीति भी ठीक है और तभी हम विदेशनीति भी ठीक कर पा रहे हैं. हम दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहे हैं. भारत का जहां भी निवेश है या व्यापार है, वहां हम कल्याणकारी नजरिए से काम कर रहे हैं. चीन का रवैया उपनिवेशवादी है. कोई भी देश उसको स्वीकार नहीं करता है. भारतीय नीति सॉफ्ट पेनेट्रेशन की है. आनेवाले समय में एक नयी विश्व व्यवस्था कायम होगी और भारत उसमें नेतृत्व की भूमिका में होगा, उसकी विदेशनीति और अधिक आक्रामक होगी. इसका अर्थ ये नहीं कि हम लड़ाई में उलझेंगे, लेकिन हां हम पूरी ताकत से अपनी बात रखेंगे, दुनिया में अपनी जगह लेंगे.



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