शायद कम लोग ये बात जानते होंगे कि साल 1984 में जब कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की थी, तो उनका सपना था कि पंजाब के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर एक दलित नेता बैठे. इसकी वजह भी थी क्योंकि देश में पंजाब ही अकेला ऐसा राज्य है जहां अब दलितों की आबादी सबसे ज्यादा यानी 32 फीसदी है जिसमें सिख व हिंदू, दोनों ही शामिल हैं. और चूंकि कांशीराम की पैदाइश भी उसी सूबे की थी, लिहाज़ा उनका वो सपना देखना भी वाजिब ही था. हालांकि कांशीराम ने अपने जीते-जी इस सपने को पंजाब से पहले उत्तरप्रदेश में साकार होते देखा, जब मायावती सबसे बड़े सूबे की पहली दलित मुख्यमंत्री बनीं.

बेशक अब महज़ पांच महीने के लिए ही सही लेकिन कांग्रेस ने एक सिख दलित को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाकर अपने डूबते हुए जहाज़ को कुछ हद तक संभालने की कोशिश जरूर की है. लेकिन सियासत की लकीरों को पढ़ने में माहिर कोई भी नजूमी पूरे दावे के साथ ये नहीं कह सकता कि दलित चेहरे के बूते पर ही इस जहाज़ को डूबने से बचाया जा सकता है. हाँ,  इतना जरुर है कि कांग्रेस ने ये फैसला लेकर अपनी मुख्य विरोधी आम आदमी पार्टी और अकाली दल-बीएसपी गठबंधन को मजबूर कर दिया है कि वे अब अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार का नाम जनता के सामने लायें.

पिछले तकरीबन 50 बरस से कांग्रेस की राजनीति को बारीकी से देखने-समझने वाले कहते हैं कि इस पार्टी की सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि सत्ता से बाहर होते ही ये अपनी सूझबूझ खो बैठती है और सत्ता में आसीन दूसरी पार्टी की नक़ल करने लगती है. वो नकल ही देश में इसके मजाक का कारण बन जाती है क्योंकि नेतृत्व की कमान जिनके हाथों में है, उन्हें किसी भी नजरिये से 'राजनीति का चाणक्य' नहीं कह सकते. पिछले करीब डेढ़ दशक से पार्टी के लिए चाणक्य की भूमिका निभाने वाले अहमद पटेल अब दुनिया में रहे नहीं और उनके जाने के बाद किसी और नेता में इतनी ताकत नहीं कि वो गांधी परिवार की 'तिकड़ी' को सही व गलत का फर्क पूरी ईमानदारी से समझा सके. इसलिये वे मानते हैं कि दस, जनपथ के सबसे भरोसेमंद अहमद भाई अगर आज जिंदा होते, तो कम से कम देश में कांग्रेस का इतना बड़ा मजाक नहीं बनने देते कि महज 22 घंटे के भीतर ही एक पद के लिए तीन बार नाम बदलने की नौबत आ जाये.

राजनीति का एक उसूल बेहद सीधा व साफ है और जो हर पार्टी खुद पर लागू भी करती आई है. वह है कि अगर किसी को पद से हटाना अगर मजबूरी बन भी गई है, तो उसका विकल्प पहले से तैयार होना चाहिये.  इसमें देरी का मतलब है कि अपने विरोधियों से आधी लड़ाई तो आप पहले ही हार गए क्योंकि ऐसा अहम फैसला लेने में हुई देरी ही तो किसी भी पार्टी की अंतर्कलह को उजागर करती है. वही गलती कांग्रेस नेतृत्व ने पंजाब के मामले में की है क्योंकि शायद अब वहां वफादार सलाह देने वालों का अकाल पड़ गया है.

हालांकि कांग्रेस को लगता है कि उसने चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाकर बहुत बड़ा सियासी दांव खेला है. कुछ हद तक उसके जातीय समीकरण को इसलिये जायज मान सकते हैं कि पंजाब की 117 सीटों वाली विधानसभा में 34 सीटें अनुसूचित जाति के लिए रिज़र्व हैं.  अगर 2017 के चुनाव नतीजों पर नजर डालें, तो इन दलित सीटों पर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का ही बोलबाला रहा था. कांग्रेस ने 34 में से 21 सीटों पर जीत हासिल की थी जबकि 9 सीटों पर आम आदमी पार्टी जीती थी.  बीजेपी के खाते में महज़ एक और अकाली दल के खाते में सिर्फ तीन सीटें आई थी.  वो भी सारी दोआबा की थी जबकि मालवा और माझा में तो अकाली दल का सूपड़ा ही साफ हो गया था. साल 2019 में फगवाड़ा से विधायक रहे सोम प्रकाश के लोकसभा चुनाव जीतने के बाद सीट खाली होने पर कांग्रेस ने इस सीट को भी जीत लिया था.  उसके बाद कांग्रेस के 22 दलित विधायक हो गए. लिहाज़ा कांग्रेस ने इसी गणित को ध्यान में रखते हुए चन्नी पर दांव खेला है कि उसका सबसे बड़ा वोट बैंक दलित ही है.

लेकिन ये नहीं भूलना चाहिए कि पंजाब का दलित वोट बंटा हुआ है, जो कभी किसी एक पार्टी के साथ नहीं जाता. सिख दलित किसी के साथ हैं, तो हिन्दू दलितों की पसंद कोई और है. अगर पिछले चुनाव में दलितों ने 22 सीटें देकर कांग्रेस की झोली भरी थी, तो उसमें कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसी शख्शियत की उस इमेज का भी बड़ा योगदान था कि वो एक महाराजा का बेटा है, जो उनकी खाली झोली भरने के लिए वोट मांग रहा है. इस बार कांग्रेस के पास दलित चेहरा तो होगा लेकिन वो कैप्टन जैसा औरा कहाँ से पैदा करेगी, जो उसकी झोली दोबारा वैसी ही भर दे. क्योंकि अब तो पंजाब में हर कोई जान चुका है कि चन्नी ने कैप्टन की सरकार में मंत्री रहते हुए उनका विरोध किया था और वे नवजोत सिंह सिद्धू के खासमखास माने जाते हैं. ये फैक्टर कांग्रेस को नुकसान पहुंचा सकता है.

कांग्रेस के लिए चिंता का एक और बड़ा कारण बन सकते हैं, वहां के जट सिख जिनकी आबादी करीब 25 फीसदी है और जो कई सीटों पर निर्णायक भूमिका में हैं. रविवार की दोपहर नये मुख्यमंत्री के लिए जिस तरह से पहले सुखजिंदर रंधावा के नाम का एलान किया गया और महज़ घंटे भर बाद ही उन्हें किनारे कर दिया गया, वो नाराजगी भी कांग्रेस को भारी पड़ सकती है क्योंकि रंधावा भी उसी बिरादरी से आते हैं. पंजाब में ये कहावत बेहद मशहूर है कि एक जट सिख सब कुछ भूल सकता है लेकिन अपने अपमान का बदला लेना कभी नहीं भूलता.

इसके अलावा कांग्रेस को इस मुगालते में तो अब बिल्कुल भी रहना चाहिए कि दलित सीएम बनाकर उसने बाज़ी जीत ली है. अकाली दल और मायावती की बीएसपी के बीच जो गठबंधन हुआ है, उसमें 20 सीटें बीएसपी के हिस्से में आईं हैं. ये वही सीटें हैं जहां से फिलहाल कांग्रेस के ही दलित विधायक हैं. इन सीटों पर अकाली पहले भी कभी चुनाव नहीं लड़े हैं. लिहाज़ा, मायावती सिर्फ इन 20 सीटों पर ही अपनी पूरी ताकत लगा देंगी. एक तो सत्ता विरोधी लहर और ऊपर से ऐन वक्त पर मुख्यमंत्री बदलने के फैसले के बाद कांग्रेस इनमें से कितनी सीटें बचा पाती है, यही नये मुख्यमंत्री चन्नी का सबसे बड़ा इम्तिहान होगा और यही उनके सियासी भविष्य का फैसला भी करेगा.

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