पंजाब में खालिस्तान के आंदोलन को दोबारा जिंदा करने की कोशिश में लगा 'वारिस पंजाब दे' का मुखिया अमृतपाल सिंह क्या दूसरा भिंडरावाला बन रहा है या फिर बन सकता है? ये सवाल इसलिये खड़ा हुआ है कि बीते दिनों अमृतसर में उसके समर्थकों ने जो हिंसक ताकत का जो तांडव दिखाया था, उसके बाद मीडिया के बड़े वर्ग ने उसे दूसरा भिंडरावाला घोषित कर दिया था, लेकिन सिख धर्म की राजनीति की नब्ज को बारीकी से समझने वाले विश्लेषक मानते हैं कि अमृतपाल में वो कुव्वत नहीं कि वो दूसरा जरनैल सिंह भिंडरावाला बन सके.


हालांकि अपनी वेषभूषा ,लंबी दाड़ी रखने, गोलाकार पगड़ी बांधने और बंदूकधारी अंगरक्षकों से चौतरफा घिरे रहने का उसका अंदाज लोगों को भिंडरावाला की याद दिला देता है और शायद यही उसका मकसद भी है, लेकिन लोग भूल जाते हैं कि भिंडरावाला का उदय उस वक़्त की राजनीति की देन था, जबकि सिख धार्मिक-जगत में पिछले साल अमृतपाल का अचानक प्रकट होना एक तमाशे से ज्यादा कुछ नहीं है.


सिखों की धार्मिक राजनीति के उतार-चढ़ाव का विश्लेषण करने वालों के मुताबिक साल 1947 में पैदा हुए भिंडरावाला ने एक 'टकसालिया' सिख के रूप में ही अपनी शुरुआती पहचान बनाई थी. वैसे "टकसाल" शब्द का शाब्दिक अर्थ तो सिक्के बनाने वाला कारखाना ही होता है, लेकिन सिखों में इसका इस्तेमाल उन उपदेशकों के लिए किया जाता है, जो अपने धर्म के बारे में खालिस प्रवचन देते हुए उसका प्रचार-प्रसार करते हैं. साल 1906 में इनमें से एक यानी दमदमी टकसाल मोगा जिले के भींडर गांव में ले जाई गई. लिहाजा, उसके जितने भी अनुयायी थे वे भिंडरावाले कहलाने लगे.


एक बरार जाट परिवार में पैदा हुआ जरनैल सिंह आठ बच्चों में सबसे छोटा बेटा था. उसके पिता जोगिंदर सिंह धार्मिक सोच रखने वाले किसान थे. बताते हैं कि जरनैल सिंह जब महज 7 का साल था तो उन्होंने अपने इस बेटे को दमदमी टकसाल को अर्पित कर दिया था. वहीं पर उसने श्री गुरु ग्रन्थ साहिब का अध्ययन करना सीखा और उसमें दर्ज कई अहम बातों को कंठस्थ करते हुए सिख धर्म के बारे में व्यापक ज्ञान भी हासिल किया. बड़े होते ही जरनैल सिंह ने आसपास के गांवों में भ्रमण करते हुए सिख धर्म का प्रचार-प्रसार करना शुरु कर दिया और जल्द ही वह दमदमी टकसाल में एक प्रभावशाली शख्सियत बन गया. साल 1971 में इस धार्मिक संस्था के प्रमुख की सड़क दुर्घटना में मृत्यु होने के बाद जरनैल सिंह को इसका मुखिया चुन लिया गया.


जून 1984 में ऑपेरशन ब्लू स्टार का गवाह रहे बीबीसी के तत्कालीन ब्यूरो प्रमुख मार्क टुली और सतीश जैकब ने अपनी एक पुस्तक में श्रीमती इंदिरा गांधी की इस अंतिम लड़ाई का जिक्र करते हुए भिंडरावाला के बारे में कहा है कि वह एक ऐसा ताकतवर नौजवान था, जो एक ही झटके में पेड़ गिरा सकता था, तो वहीं उसे अपना धर्मग्रंथ कुछ ऐसा कंठस्थ था कि वह दिन में सौ बार अलग-अलग चैप्टर पर प्रवचन देने का दिमाग भी रखता था.


अपनी पुस्तक A History of the Sikhs में खुशवंत सिंह ने लिखा है कि भिंडरावाला के सबसे मजबूत समर्थक वे महिलाएं और बच्चे थे, जिन्होंने अपने शराबी पिता, पति या भाई से अनगिनत कष्ट झेले थे और जो पूरी तरह से उपेक्षित ही चुके थे. जबकि वहीं अमृतपाल सिंह की तुलना की जाये, तो उसकी पृष्ठभूमि भिंडरावाला की तरह कट्टरपंथी नहीं है. ये अलग बात है कि उसने पिछले साल 'वारिस पंजाब दे' संगठन की कमान अपने हाथ में लेकर खुद की इमेज एक कट्टरपंथी सिख बनाने की कोशिश की है.


एक अभ्यासी या कहें कि अमृतधारी सिख होने की सबसे प्रामाणिक पहचान ही केश और लंबी दाढ़ी होने के साथ ही पांच ककार हर वक्त होना अनिवार्य है. धर्म के प्रति आस्था कितनी कट्टर होनी चाहिए, ये भिंडरावाला ने बचपन में ही सीख लिया था और बड़े होकर वह इसका एक प्रतीक बन गया था. इसके उलट अमृतपाल ने दुबई में रहते हुए अपने केश कटवा रखे थे. लिहाजा, पंजाब के लोग जानते हैं कि वह न तो एक अभ्यासी सिख है और न ही इतना बड़ा जानकर कि धार्मिक प्रवचन देते हुए भिंडरावाला की बराबरी कर सके. हालांकि पिछले साल जब वह धार्मिक मैदान में अचानक प्रकट हुआ, तो उसने भिंडरावाला जैसा भेष रचकर लोगों की आंखों में धूल झोंकने की कोशिश की है वह उसका ही अवतार है. 


अमृतपाल सिंह के साथ न दमदमी टकसाल है, न अकाल तख्त ने उसकी इस मुहिम पर अपनी मुहर लगाई है और न ही किसी राजनीतिक दल ने उसकी करतूत का समर्थन किया है. अगर पंजाब की भगवंत मान सरकार का किसी भी रूप में उसे समर्थन मिला होता, तो उसके सात बंदूकधारियों के लाइसेंस कैंसिल न हुए होते. यही कारण है कि विश्लेषक मानते हैं कि ये कुछ दिन का तमाशा है क्योंकि उसे लाइम लाइट में आना है और इस बहाने वह अपनी सियासी जमीन तलाश रहा है कि अगले लोकसभा चुनाव में कोई पार्टी शायद उसे टिकट दे दे. 


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