आज से तकरीबन 65 साल पहले जब वे जनसंघ के बैनर पर उत्तरप्रदेश के बलरामपुर से चुनाव जीतकर पहली बार लोकसभा के सांसद बने, तब देश की सियासत में संसद के भीतर और बाहर सिर्फ कांग्रेस की तूती ही बोला करती करती थी. तब किसी ने सोचा भी नहीं था कि महज 33 बरस से भी कम उम्र का विपक्षी दल का एक  नौजवान सांसद अपने दस्तावेजी तथ्यों के आधार पर सरकार को इस तरह से भी घेर सकता है. लेकिन दिवंगत अटल बिहारी वाजपेयी के लोकसभा में दिए उस भाषण के ख़त्म होने के बाद देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने अटलजी की मेज पर जाकर उन्हें बधाई तो दी ही लेकिन साथ ही ये भविष्यवाणी भी कर दी थी कि आपकी प्रतिभा का जज़्बा बताता है कि आप एक दिन इस देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर अवश्य बैठेंगे.वतब अपनी उम्र का ख्याल रखते हुए अटलजी ने बेहद विन्रमता से नेहरूजी को जवाब दिया था, "मैं राजनीति में किसी पद पाने की लालसा में नहीं आया हूं. मैं एक पत्रकार,लेखक रहा हूं और उस मां सरस्वती के आशीर्वाद से मेरे ह्रदय में एक कवि भी बसता है. नहीं जानता कि प्रकृति आपके मुंह से निकले शब्दों को कब साकार करेगी लेकिन इस वक़्त लोगों ने आपकी सरकार की कारगुजारियों पर सवाल पूछने और उनकी जिंदगी से जुड़े बुनियादी मुद्दों की आवाज उठाने के लिए ही मुझे यहां चुनकर यहां भेजा है"


अटलजी की जीवनी लिखने वाले लेखकों के मुताबिक नेहरुजी के पास इसका कोई जवाब नहीं था और वे अटलजी के कंधे पर हाथ रखकर मुस्कराते हुए सदन से बाहर चले गए. 2014 के लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान और पीएम की कुर्सी संभालने से पहले नरेंद्र मोदी ने कई बार ये दोहराया था कि देश की जनता कांग्रेस मुक्त भारत चाहती है और वे ऐसा करने के लिए बेचैन भी है. लेकिन मोदी के इस दावे से 15 साल पहले 17 अप्रैल 1999 को बहुमत साबित न कर पाने की वजह से जब वाजपेयी सरकार महज़ एक वोट से गिर गई थी,तब अटलजी ने लोकसभा में कहा था कि "एक दिन ऐसा आएगा,जब इस देश की जनता कांग्रेस का मजाक उड़ाएगी."


पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे देखें और अटलजी की उस वक़्त कही बात पर गौर करें,तो पता लगता है कि 23 साल पहले की गई उनकी वो भविष्यवाणी अब बिल्कुल सच होती हुई सामने नज़र आ रही है. कांग्रेस की इस दुर्गति की पड़ताल करने के लिए आज सोनिया गांधी ने अपने आवास पर संसदीय रणनीति बनाने वाले समूह के नेताओं की बैठक बुलाई है. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि पार्टी के कई बड़े नेता पिछले साल भर से ये चेता रहे थे कि पार्टी नेतृत्व किसके हाथों में ये साफ किया जाए. जब इन 23 नेताओं ने इसके लिए चिट्ठी लिखकर आवाज उठाई, तो उसे G-23 का नाम देकर ये संदेश देने की कोशिश की गई कि वे अब पार्टी के वफादार नहीं रहे और वे बगावती तेवर अपना रहे हैं.


लेकिन सोनिया समेत गांधी परिवार के किसी भी सदस्य ने ये हिम्मत नहीं जुटाई कि वे नेतृत्व परिवर्तन की आवाज उठाने वाले इन ग्रुप 23 नेताओं से सीधे संवाद करके ये जानने की कोशिश करते कि कांग्रेस को दोबारा जिंदा करने के लिए क्या किया जाए और आखिर वे क्या चाहते हैं. हालांकि कांग्रेस के कई नेता मानते हैं कि अहमद पटेल का इस दुनिया से इतनी जल्द विदा हो जाना सिर्फ गाँधी परिवार के लिए ही नहीं बल्कि पूरी पार्टी के लिए इतना बड़ा नुकसान साबित हुआ है,जिसका अहसास उनके बच्चों को न सही लेकिन सोनिया गांधी को तो अब जरुर हो रहा होगा कि सिर्फ एक गलती से अपने सबसे मजबूत समझे जाने वाले किले पंजाब को तश्तरी में रखकर किसी और सौंप दिया. वे कहते हैं कि अगर अहमद पटेल जिंदा होते,तो वे तमाम मनभेद होने के बावजूद सोनिया को कभी भी ये सलाह नहीं देते कि चुनाव से ऐन पहले कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटाकर किसी और को मुख्यमंत्री बना दिया जाए. लेकिन उनके जाने के बाद राहुल-प्रियंका को सलाह देने वाले नेताओं ने अपने निजी स्वार्थ के चलते ऐसा गेम खेला कि जिससे उनका अपना भट्टा तो बैठा ही लेकिन पार्टी को भी डुबो दिया.


गांधी परिवार से नजदीकी रखने वालों की मानें,तो दरअसल,राजीव गांधी की असमय हुई मौत के बाद कांग्रेस में इकलौते अहमद पटेल ही ऐसे नेता थे,जिन्होंने सोनिया गांधी का इतना विश्वास हासिल कर लिया था कि वे उन पर आंख मूंदकर यकीन करती थीं. यही कारण था कि वे कई सालों तक न सिर्फ सोनिया के राजनीतिक सलाहकार रहे बल्कि 10 साल  तक केंद्र की सत्ता में रही मनमोहन सिंह सरकार का हिस्सा न होने के बावजूद वे पर्दे के पीछे रहते हुए ही सोनिया के हर मंसूबे को अंज़ाम देते रहे. शायद इसीलिये उन्हें पार्टी का सबसे बड़ा 'संकटमोचक' समझा जाता था क्योंकि किसी भी नाराज नेता को मनाने की कला में उन्हें महारथ हासिल थी. लेकिन अब पांच राज्यों में हुई कांग्रेस की करारी हार के बाद सोनिया गाँधी इस बैठक के जरिये आखिर क्या हासिल कर पाएंगी? साल 2014 में नरेंद्र मोदी के पीएम बनने के बाद भी 2018 तक देश के नौ राज्यों में कांग्रेस की सरकार थी लेकिन अब हालत ये हो गई है कि उसके पास राजस्थान और छत्तीसगढ़ के सिवा कुछ नहीं बचा.  महाराष्ट्र में वह शिव सेना और एनसीपी के गठबंधन वाली


दअसरल सोनिया गांधी को भी आज की ये बैठक इसलिये बुलानी पड़ी है कि नेतृत्व की कार्यशैली से नाराज जी-23 के कई नेता अब कांग्रेस को 'गुड बाय' कह सकते हैं. क्योंकि चुनाव नतीजे आने के बाद पार्टी के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद ने शुक्रवार की देर शाम अपने घर पर उन्हीं सब नेताओं की बैठक बुलाई थी जिसमें कपिल सिब्बल, अखिलेश प्रसाद सिंह, मनीष तिवारी समेत कई नेता शामिल थे. अब सवाल ये है कि सोनिया गांधी देश की सबसे पुरानी पार्टी का वजूद बचाना चाहती हैं या उसे पूरी तरह से ख़त्म करने की पक्षधर हैं? जाहिर है कि वे इसे ख़त्म नहीं करना चाहेंगी ,तो फिर उससे भी बड़ा सवाल ये है कि वे कांग्रेस को गांधी परिवार के साये से मुक्त करके किसी और के हाथ में इसकी कमान देने से आखिर डर क्यों रही हैं?



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