मेघालय में बीफ को स्वीकारना और कर्नाटक-तमिलनाडु में हिंदी का विरोध होने पर यह कहा जा रहा है कि भाजपा इसे होने दे रही है. मेरा मानना है कि ये दोनों बातें पूरी तरह से सत्य नहीं हैं. चूंकि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व का न तो बीफ पर बयान है और न ही इस समय जो तमिलनाडु में हिंदी की बात उठी है. ऐसा कहीं नहीं कहा गया है कि हम हिंदी को नहीं चाहते हैं. चूंकि विरोध करने का तो मतलब यही हुआ न कि हम हिंदी नहीं चाहते हैं. भारत विविधताओं से भरा देश है. बीजेपी का जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद या जिसको आरएसएस एक तरह से हिंदू राष्ट्र कहती है. जहां तक मैंने पढ़ा और समझा है उसमें कहीं नहीं है कि पूरे देश में एक धर्म और एक भाषा को लागू करने की बात नहीं है. एकरूपता कभी भी भारतीय संस्कृति का अंग रहा नहीं है.

आज हम हर चीज में भाजपा को शामिल कर देते हैं. मान लिया जाए कि कल बीजेपी नहीं हो तो क्या सभी पार्टियां गौ-हत्या और गोमांस खाने की इजाजत दे देंगी या हिंदी का मुद्दा केवल क्या भाजपा से जुड़ा हुआ है? मूल बात यह है कि कुछ क्षेत्रों में जहां आदिवासी रहते हैं और उनकी अपने अनुसार जिंदगी रही है. कुछ तो अज्ञानता के कारण रही है और कहीं ऐसा वायुमंडल है कि जिसमें कई सारी चीजें चलती रही हैं. उसमें रिफॉर्म की जरूरत है. समाज में जागरूकता और शिक्षा का फैलाव, अपनी धर्म-संस्कृति का पहुंचना और आदिवासी जिसको हम बोलते हैं जो वाकई वनवासी हैं उनके बीच तो अंग्रेजों के समय ईसाई पहुंचने लगे और उनका ईसाईकरण हुआ. देश में ज्यादातर तो ईसाई बहुल क्षेत्र हैं वो आदिवासी ही हैं. उनके हिसाब से उनकी संस्कृति धनी है, वो ठीक है.

रिफॉर्म की है जरूरत मेघालय में भाजपा के जो अध्यक्ष हैं और वो वहां के बड़े नेता हैं. उन्होंने कहा है कि मैं तो यहां गोमांस खाता हूं और मुझे तो किसी ने रोका नहीं. मेरा कहना है कि कोई रोकेगा नहीं क्योंकि रोकने से कोई रोकता नहीं है. चूंकि, वहां का वातावरण ही कुछ ऐसा है. लेकिन धीरे-धीरे इस बात को समझाना कि गोमांस क्यों नहीं खाना चाहिए? गाय का महत्व क्या है? तभी इसे हम रोक पाएंगे. गाय केवल धर्म का प्रतीक ऐसे ही नहीं बना है. आज भी यह साबित हो गया है कि हम जो प्राकृतिक खेती करते हैं और अगर हम एक देशी गाय पालते हैं तो उसके गोबर और पेशाब का उपयोग करेंगे. आप 5 एकड़ तक की खेती आप कर सकते हैं. लोगों ने प्रय़ोग किया है उसके आधार पर. उससे जो खाद बनाते हैं उसे कैसे बनाना है.

कहने का मतलब है कि उसके दूध का बात तो छोड़ दीजिए, गोबर और पेशाब तक का महत्व है. लेकिन जो बातें साबित हो गई हैं उसके बाद भी हमारे देश में तो उसका मजाक उड़ाने की बात हो जाती है. इसलिए भारतीय जनता पार्टी के जिन राज्यों ने गौ-हत्या निषेध के कानून बनाए हैं और जहां तक मुझे याद है संभवतः ऐसा करने वाले 19 राज्य हैं तो उनमें मेघालय नहीं हो सकता है, त्रिपुरा नहीं है और ऐसे कई अन्य राज्य भी हैं जहां इसे लागू नहीं किया जा सकता है. उस पर समय लगेगा. लेकिन, बीजेपी क्या अगर इस देश की कोई भी पार्टी कहती है कि गाय का मांस खाना चाहिए तो उसे बहुमत समाज का समर्थन नहीं मिल सकता है. ये देश का वातावरण है और सदियों से हमारी संस्कृति का प्रतीक है और गाय की बहुत सारी विशेषताएं भी हैं. हमें इस इस रूप में देखना चाहिए.

नहीं थोपी गई हिंदी

दूसरी बात ये है कि जो भारतीय जनता पार्टी के शासन काल में शिक्षा नीति आई है उसमें कहीं भी हिंदी को थोपने की बात नहीं है. हिंदी राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकृत हो और सभी लोग इसे पढ़ें और जानें. इसकी कोशिश तो उसमें है लेकिन अपनी मातृभाषा को पूरी तरह से सशक्त करना और उसे मातृभाषा में शिक्षा मिले तो ये तो पहली बार देश में हुआ है. मेडिकल और इंजीनियरिंग की परीक्षा या उसकी शिक्षा और कोई ओड़िशा में रहने वाला उड़िया में दे दे, बंगाल में रहने वाला बांग्ला भाषा में दे दे तो ये तो हमारे यहां बहुत पुरानी मांग थी. इन सब का अंग्रेजीकरण कर दिया गया. अंग्रेजी के कारण हिंदी का ज्यादा विरोध हुआ है. हमारे देश की ज्यादातर भाषाएं तमिल को छोड़ दीजिए तो संस्कृत से निकली हुई हैं.
 
जाहिर है उनमें कोई टकराव नहीं है भाषाओं में. संस्कृति से निकली हुई हिंदी है तो हिंदी के साथ सामान्यतः दुराव नहीं है. ये तो अंग्रेजों की नीति और उसके बाद हमारे देश में शासन चलाने वालों की अदूरदर्शिता और समझ नहीं होने के कारण कि किस तरीके से हिंदी हमारे देश की प्रतिभाओं को बढ़ाएगी. हिंदी में कितना विशाल भंडार है ज्ञान का, शब्दों के भंडार हैं इसकी जानकारी नहीं होने के कारण अंग्रेजी के वर्चस्व को बढ़ावा मिला. हमारे यहां तो अंग्रेजी के अंकों तक को मान्य कर दिया गया जबकि अंग्रेजी भाषा में सिर्फ 26 लेटर ही हैं और हिंदी में 52 से 56 लेटर हैं और हमारे यहां अगर क लिखते हैं तो उसे 'क' ही पढ़ते हैं, 'ख' लिखते हैं तो ख ही पढ़ते हैं और ये दुनिया के किसी और भाषा में संभव नहीं हैं सिर्फ हिंदी में संभव है.
 
भारत की जितनी भी क्षेत्रीय भाषा हैं सब उतनी ही समृद्ध हैं, सब में उतनी ही ज्ञान की बाते हैं और व्यक्ति जहां पैदा लेता है वहां के वातावरण का जो रिदम है उससे उसकी भाषा के संस्कार होते हैं. आप देखिये न कन्नड़ भाषा भी कितना सशक्त भाषा है. क्या नहीं है कन्नड़ के साहित्य में और जो तमिल भाषा है वो देश की सबसे पुरानी भाषा मानी जाती है. पहले तमिल संगम होते थे. भारत की संस्कृति का बहुत बड़ा भाग रहा है और यह उत्तर और दक्षिण की एकता रही है. लेकिन तमिल, कन्नड़ और मलयालम को कमजोर करके हिंदी को बढ़ावा देने की बात सरकार रही है ऐसा तो है ही नहीं. इसलिए एक नीति है कि लोग पहले अपने क्षेत्रीय भाषाओं पर आएं ताकि अंग्रेजी का वर्चस्व खत्म हो. जब क्षेत्रीय भाषाओं की ओर लोग आकर्षित होंगे तो उनका ध्यान हिंदी की ओर अपने आप होने लगेगा. अभी जो तमिलनाडु में विवाद हुआ है उसमें 'दही' की कंपनी को वहां पर जो सरकारी विभाग है जो फूड स्टैंडर्ड की गारंटी देती है उसमें दही को हिंदी में लिखा जाए और उसे स्थानीय भाषा में ब्रैकेट में लिखा जाए...तो उसका अन्नाद्रमुक ने विरोध कर दिया है. चूंकि उनका हिंदी विरोध की राजनीति लंबे समय से रही है, उत्तर-भारत का विरोध, धर्म का विरोध करते रहे हैं. इसमें जो गैर राजनीतिक लोग हैं वो इसे ठीक से उठाएं. वहां इसे लेकर संघर्ष चलने दें कि राजनीतिक दल और सत्ता में होने के कारण बीजेपी द्रमुक को क्यों मौका देगी. हमें तो तमिल और हिंदी में बैर करना नहीं है.
 
हिन्दी और हिन्दीवासियों से क्या समस्या?
 
उसी को लेकर तो वहां हिंदी के अखबार जलाए गए, हिंदी के लोगों पर हमले हुए, दंगे हुए 70 के दशक में तो क्या उस परिस्थिति को बढ़ावा दिया जाए. सिद्धारमैया ने पूरे प्रदेश में जहां भी मेट्रो स्टेशन का नाम हिंदी में लिखा हुआ था उसे हटावा कर कन्नड़ और उर्दू में जबरदस्ती लिखवाए. देश में तो ये पूछा जाना चाहिए कि भाई इनको हिंदी और हिंदी वासियों से क्या समस्या है? सिद्धारमैया से पूछा जाना चाहिए कि उन्हें हिंदी से क्या विरोध है, कन्नड़ से विरोध नहीं, उर्दू से प्रेम है. इन सब को छोड़ कर हम लोग भाजपा को निशाने पर लेते हैं. आप बताइए कि देश के प्रधानमंत्री गुजराती हैं, गृहमंत्री गुजराती हैं और इस दौर में हिंदी के सम्मेलन हो रहे हैं. इनके शासन काल में सुप्रीम कोर्ट से बातचीत करके हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में कैसे कोर्ट के फैसले का इन भाषाओं में अनुवाद हो, कैसे वकालत किया जाए इन सब की कोशिश हो रही है. गृह मंत्री बार-बार कहते हैं कि हमारी मातृभाषा हिंदी ही है. हिंदी को हमेशा तवज्जो देना है और सरकार के स्तर से हिंदी के इतने कार्यक्रम हो रहे हैं...तो जो मूल बात है कि चाहे आप कर्नाटक में जाएं या तमिलनाडु में सभी जगह बिना कहे हिंदी का प्रचार-प्रसार हो रहा है. तमिलनाडु में हिंदी के संस्थान खुल रहे हैं. वहां आपको हिंदी में लगे हुए कुछ नारे और बैनर तक दिख जाएंगे. हिंदी के अखबार वहां बीक रहे हैं पहले ये सब नहीं था. वहां पंजाब केशरी, नवभारत टाइम्स और राजस्थान पत्रिका जैसे अखबार मिल रहे हैं. कर्नाटक की एक अखबार है दक्षिण-भारत राष्ट्रमत वो वहां मिल रही है और लोग पढ़ रहे हैं...तो मूल बात ये है कि धीरे-धीरे हिंदी सर्व स्वीकार्य हो और ये तभी हो सकता है जब अंग्रेजी का वर्चस्व धीरे-धीरे कुंद पड़ने लगेगा और क्षेत्रीय भाषाओं का वर्चस्व बढ़े.
 
मुझे लगता है कि जैसे-जैसे ये नई शिक्षा नीति आगे बढ़ेगी बदलाव होता चला जाएगा. 1947 के बाद ये पहली ऐसी शिक्षा नीति है जोकि भारत के अनुकूल है और यहां के प्रतिभाओं का ठीक प्रकार से विकास हो सके उसकी दृष्टि ये आई है. और हिंदी बढ़ रही है और बढ़ेगी. सरकार की नीति हिंदी को संपूर्ण भारत में स्वीकृत कराने की है लेकिन लाठी की बदौलत नहीं हो सकता है...तो इस मुद्दे पर भाजपा का आक्रामक नहीं होना बिल्कुल उचित नीति है और किसी भी पार्टी को जो राष्ट्रीय एकता और अखंडता में विश्वास रखती है वो भाषा के मुद्दे पर कभी भी आक्रामक नहीं होगी.
 
[ये आर्टिकल निजी विचार पर आधारित है]