देश की राजनीति में अगर फिल्मी सितारों का तड़का न लगे, तो वह कुछ अधूरी-सी लगती है. पिछले चार दशक में तकरीबन हर पार्टी ने इस अधूरेपन को भरने के लिए इनका ठीक वैसा इस्तेमाल किया, जैसे हम ताजे अखबार का करते हैं. लेकिन सियासत के नशे का चस्का ही कुछ ऐसा है कि अगर एक बार लग गया, तो फिर आसानी से नहीं छूटता. बॉलीवुड में अपनी आवाज़ के जरिये शोहरत कमाने वाले बाबुल सुप्रियो भी सियासत के इस सुरुर से बच नहीं पाए. सात साल तक बीजेपी में रहते हुए सत्ता का पूरा स्वाद चखा लेकिन जब वह मिलना बंद हो गया, तो आखिरकार उन्होंने ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस का दामन थामने में जरा भी परहेज नहीं किया. सवाल उठता है कि जिस चेहरे के दम पर बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में अपनी जमीन तैयार की, उसके चले जाने से क्या अब वो पहले से ज्यादा मजबूत हो जाएगी?


साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने बेहद सोच-समझकर पश्चिम बंगाल के लिए अपनी रणनीति बनाई थी, जिसमें वह कामयाब भी हुई. तब राजनीति के अनजान चेहरे बाबुल सुप्रियो को आसनसोल सीट से पार्टी का उम्मीदवार बनाकर ये दांव खेला गया था कि वे जीत गए. तो सोने में सुहागा और अगर न भी जीते, तो इस चेहरे के दम पर ही पार्टी बंगाल में अपनी जमीन तो तैयार कर ही लेगी. लेकिन इसे किस्मत का खेल ही समझा जाएगा कि वे खुद तो जीते ही, साथ ही पार्टी को भी इतनी मजबूत स्थिति में ला दिया कि वो भविष्य में ममता दीदी के साथ दो-दो हाथ करने की हैसियत में आ जाए.


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल करके इसका ईनाम भी दिया, ये जानते हुए भी कि उन्हें राजनीति और सरकार के काम करने के तौर-तरीकों का मामूली ज्ञान भी नहीं है. साल 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने दोबारा उन पर भरोसा किया और उसी सीट से उम्मीदवार बनाया, जिसपर वे फिर खरे उतरे. उनका मंत्रिपद भी बरकरार रहा. सब कुछ ठीक था. गायन की दुनिया से निकलकर वज़ीर बनने वाला भी खुश और दिल्ली दरबार भी उससे खुश.


लेकिन बाबुल सुप्रियो के बढ़ते हुए कद से खार खाए बैठे नेताओं ने इस साल हुए बंगाल विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी आलाकमान को सुझाव दिया कि अगर ममता को हराना है, तो पार्टी को अपने ज्यादातर सांसदों को विधानसभा का चुनाव लड़वाना चाहिए. सुझाव पसंद आया और उस पर अमल भी हुआ. बाबुल को भी मैदान में उतारा गया लेकिन शायद वे इससे बेखबर थे कि उन्हें निपटाने की तैयारी प्रदेश के नेताओं ने पहले से ही कर रखी है. वे तकरीबन 50 हजार वोटों से चुनाव हार गए. ऐसा बहुत कम ही देखने को मिलता है कि कोई मौजूदा सांसद अपने क्षेत्र की किसी एक विधानसभा सीट से चुनाव लड़े और हार जाए.


उनके विरोधयों की रणनीति कामयाब हुई और पिछली सात जुलाई को जब मोदी सरकार के मंत्रिमंडल का विस्तार किया गया, तो बाबुल सुप्रियो को मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया गया. यहीं से उनकी नाराजगी शुरू हो गई, जिसे उन्होंने सोशल मीडिया के जरिए जाहिर करने में जरा भी देर नहीं लगाई.


सुप्रियो ने जुलाई में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन राज्य मंत्री के पद से इस्तीफा दिया था. अपने इस फैसले की सूचना देते हुए तब उन्होंने अपने फेसबुक पेज पर लिखा था कि "उनसे इस्तीफ़ा देने के लिए कहा गया" है. लेकिन इसके कुछ देर बाद उन्होंने अपनी फ़ेसबुक पोस्ट में परिवर्तन करते हुए लिखा कि 'इस्तीफा देने के लिए कहा गया' शायद ये सूचना देने का सही ढंग नहीं था.


मंत्रिपद छीन लिए जाने के बाद बाबुल ने एलान किया था कि वे अब राजनीति से संन्यास ले रहे हैं. राजनीति से संन्यास लेने की जानकारी सुप्रियो ने अपने फेसबुक पेज पर एक पोस्ट लिखकर दी थी. बांग्ला भाषा में लिखी इस पोस्ट में बाबुल सुप्रियो ने बताया था कि वह जल्द ही लोकसभा सांसद से इस्तीफ़ा दे देंगे और अपना सरकारी आवास खाली कर देंगे.उन्होंने लिखा, "चलता हूं, अलविदा, अपने माँ-बाप, पत्नी, दोस्तों से बात करके मैं कह रहा हूं कि मैं अब (राजनीति) छोड़ रहा हूं. हालांकि तब उन्होंने ये भी स्पष्ट किया था कि वह किसी अन्य राजनीतिक दल में शामिल नहीं हो रहे हैं. उन्होंने लिखा था, "मैं किसी राजनीतिक दल में नहीं जा रहा हूं. टीएमसी, कांग्रेस, सीपीआई (एम)... किसी ने मुझे नहीं बुलाया है. मैं कहीं नहीं जा रहा हूँ. मैं एक टीम के साथ रहने वाला खिलाड़ी हूं.''


राजनीति से मोहभंग होने का हवाला देते हुए बाबुल ने अपनी एक पोस्ट में ये भी लिखा था, "मैं बहुत दिन रह लिया. मैंने किसकी मदद की है, किसको निराश किया है,ये फ़ैसला अब लोगों को करना है. किसी को भी सामाजिक काम करने के लिए राजनीति में रहने की ज़रूरत नहीं हैं." हालांकि सियासी गलियारों में ऐसी चर्चा है कि बाबुल ने राज्यसभा की सीट पाने के लिए ही ममता का दामन थामा है. पिछले दिनों ही तृणमूल से राज्यसभा की सदस्य अर्पिता घोष ने इस्तीफा दिया है, लिहाजा ये कयास लगाए जा रहे हैं कि अब बाबुल को वहां भेजा जा सकता है.
एक पुरानी कहावत है कि सियासत में जो दिखता है, वैसा होता नहीं है और अक्सर नेता जो कहते हैं, वैसा करते नहीं हैं. दो महीने पहले बाबुल सुप्रियो ने जो कहा था और कल जो किया है,ये उस कहावत की हकीकत बताने का ताजा सबूत है.


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